सोमवार, 31 दिसंबर 2012

पुरुष के नाम




पुरुष के नाम ......

आज झूल रही हूँ जिंदगी और मौत के बीच
जीना था मुझे, उनको और उन जैसों को देनी थी सीख और समझ
इस दिशा में करना था काम ।
मेरे आहत और टूटे शरीर के भीतर थी एक ज्वलंत जीजीविषा और दबंग मन
कि कुछ ऐसा करूं कि आगे ऐसा ना हो किसी के साथ, ना बनें हमारी छोटी छोटी खुशियां दुखभरी दास्तान ।
बताऊं उनको जो बनते हैं हमारे पिता, नेता, मार्गदर्शक, पथ प्रदर्शक
कि जब तुम ही अपना आचरण स्वच्छ न रखो, तुम ही स्त्री की इज्जत ना करो तो तुम्हारे बच्चे, और ये आम आदमी क्या सीखेंगे, किस राह पर चलेंगे ।
गलत करोगे गलत को आश्रय दोगे तो यही समाज मिलेगा और कल को तुम्हारी बहु बेटियां यही भुगतेंगी ।
माँओं को भी विनती है सिखायें बेटों को करें नारी का सम्मान ।
मेरी ये टूटी फूटी देह साथ नही दे रही मेरा, इसलिये अलविदा............ पर
जारी रखना ये संघर्ष ताकि औरत पा सके इस समाज में अपना सही स्थान और सम्मान और फिर ना हो किसी की ऐसी हिम्मत ।

मंगलवार, 27 नवंबर 2012

नैन लगे उस पार


देह के अपने इस प्रांगण में
कितनी कीं अठखेली पिया रे
मधुघट भर भर के छलकाये
औ रतनार हुई अखियाँ रे  ।
खन खन चूडी रही बाजती
छम छम छम छम पायलिया रे
हाथों मेहेंदी पांव महावर
काजल से काली अंखियां रे
वसन रेशमी, रेशम तन पर
केश पाश में बांध हिया रे ।
कितने सौरभ सरस लुटाये
तब भी खिली रही बगिया रे ।

पर अब गात शिथिल हुई जावत
मधुघट रीते जात पिया रे  ।
पायल फूल कंगन नही भावत
ना मेहेंदी ना काजलिया रे
पूजा गृह में नन्हे कान्हा
मन में बस सुमिरन बंसिया रे ।
तुलसी का एक छोटा बिरवा
एहि अब रहत मोर बगिया रे

सेवा पहले की याद करि के
रोष छोड प्रिय करो दया रे ।
दिन तो डूब रहा जीवन का
सांझ ढले, फिर रात पिया रे
नही इस पार जिया अब लागत
नैन लगे उस पार पिया रे ।

यह कविता कविवर्य (स्व.) भास्कर रामचंद्र तांबे जी  की 'रिकामें मधुघट' ( खाली मधुघट) की संकल्पना पर आधारित है ।
आशा है आपको पसंद आयेगी ।

यहां से अब परसो दिल्ली जाना है , पहले लंबा सफर, फिर घर की साफ सफाई । वापस ढर्रे पर लौटने तक शायद
ब्लॉग पर समय ना दे पाऊँ । आपका स्नेह वापसी पर मिलता रहेगा इसी आशा के साथ ।




मंगलवार, 20 नवंबर 2012

कितने सपने


कितने सपने बांध ले चली आंचल में
एक नया संसार ले चली आंचल में ।

बाबुल की सब सीख और माँ की ममता
भाई बहन का प्यार ले चली आंचल में ।

साझे कमरे का प्यार और कुछ लडाई भी
उन यादों को सम्हार ले चली आंचल में ।

सहेलियों की छेड छाड ठिठोली भी
कुछ उनकी मनुहार ले चली आंचल में ।

अपने प्रिय लेखक और कवियों की यादे
एक पुस्तक संसार ले चली आंचल में ।

अब विनती है, प्रिय, तुम मेरा देना साथ
इतना तो अधिकार हूं लाई आंचल में ।

मै इस घर को अपने प्यार से भर दूंगी
भर लूंगी प्यार दुलार मै अपने आंचल में ।

जब होगी कभी अपनी एक नन्ही बेटी
दूंगी उसे संसार मैं अपने आंचल में ।








चित्र गूगल से साभार ।

गुरुवार, 8 नवंबर 2012

रिश्तों की रंगोली




रिश्तों की रंगोली सजायें
रंग भरे लाल, नीले, हरे, पीले ।
प्यार के, इसरार के, दुलार के ।

स्नेह के दीपक जगमगायें
घर आंगन  उजास फैले
मान की, मुस्कान की, सम्मान की,

वधु, कन्या, गृहलक्ष्मी,
पूजी जायें
आदर से, प्यार से, मनुहार से


मीठे बोलों के पकवान सजायें
प्यारे प्यारे, मन मोहक, 
शीतल, कोमल, रस भरे ।


निर्मल मन और आंगन
पूजा का थाल सजे,
हो प्रसाद मिष्टान्न,
दीपों से उजियारी रजनी करें


तब ही होगी सार्थक लक्ष्मी पूजा
और होगा संपन्न दीपावली का
ये त्यौहार ।



रविवार, 28 अक्तूबर 2012

चांदनी का दरिया




ये जगमगाता चांदनी का दरिया
और उसमें दमकता सा तुम्हारा चेहेरा
ये अनोखी सी मदभरी ठंडक
अपनी नजदीकियों की ये गरमाहट ।

ये शरद की लुभावनी सी ऋतु
ये फिज़ा भी महकती महकाती
ये चारों और बिखरी सुंदरता
चांदनी में कुछ और ही चमचमाती  ।

जुबाँ खामोश, आँख बात करती सी
उंगलियां हाथों में थरथरातीं सी
ये हलकी सी होंटों की जुंबिश
जुल्फों की छांव घने बादल सी ।

ये प्यारे पल हमारे प्रेम-पगे
इनको हमेशा जहन में रख्खेंगे
फिर चाहे आये अंधेरी अमावस कोई
रोशनी से उसको भी नहला देंगे ।



बुधवार, 17 अक्तूबर 2012

बुराई पर अच्छाई की विजय



बुराई पर अच्छाई की विजय आसान नही होती
बिना हौसले हिम्मत के आन बान नही होती ।
दुर्गा मैया ने, श्री राम ने किया नौ दिन संग्राम
तब जाकर विजय का हुआ सिंहनाद ।
मधु, कैटभ, महिषासुर ,शुंभ, निशुंभ,
चंड मुंड, रक्तबीज,
खर, दूषण, ताडका,
कुंभकर्ण,रावण
कितने  शत्रू संहारे
जन मुक्त किये बेचारे
तब जाकर हटे पहरे
सीता मैया को किया मुक्त
रावणसे ।
पृथ्वी को असुरों से 
पर रावण कहां खत्म हुआ न ही हुए खत्म असुर
अब तो हम में से हर पुरुष को बनना होगा राम और हर नारी को दुर्गा
क्यूं कि बुराई पर अच्छाई की विजय आसान नही होती ।।

चित्र गूगल से, साभार ।

शनिवार, 6 अक्तूबर 2012

प्रलय सृजन


प्रलय के उपरान्त होता है सृजन
तुम प्रलय की वेदना से मत डरो ।
वेदना में है निहित उसका का हरण
वेदना की धार से तुम मत डरो ।

संतुलन ही, नियम है इस प्रकृती का
क्रिया-प्रतिक्रिया ये सदा घर्षण है होता
संतुलन को ही निजी जीवन में लाओ
कमी जो जो है जहां पर वह भरो ।।

दुःख औ उसके बाद सुख, चलता ही जाता
उपरान्त कटनी के कृषक फिर बीज बोता,
तपती धरती, तब ही  तो वर्षा है होती
अमिय की इस धार को हिय में धरो ।।

आज आँसू, कल खुशी की जगमगाहट
आज पीडा है तो कल फिर मुस्कुराहट
दोनों ही के परे जा तुम जी सको तो
जीत के, जीवन के अपयश को हरो ।

कर्म के अनुसार सबको फल है मिलता
जो यहां जैसा है करता वैसा भरता
बात को इस मान के आगे बढो तुम
और अपना कर्म सुख पूर्वक करो ।

प्रलय के उपरान्त होता है सृजन
तुम प्रलय की वेदना से मत डरो ।।

गुरुवार, 27 सितंबर 2012

बेहतर





वेदना संवेदना है
क्रोध है और कामना है
मोह है और भावना है
मद है कुछ अवमानना है
प्रेम है सद्भावना है
इनके चलते मै सिरफ
इन्सान हूँ यह मानना है ।

हाथ मेरे कर्मरत है
चल रहा जीवन का रथ ये
जो नियत है मेरा पथ है  
है नरम या फिर सखत है
मन कभी रत और विरत है
इनके चलते मै फकत
बस हूँ इक लम्हा ए वकत  ।

खुशियां भी हैं और गम भी
आंख य़े होती है नम भी
ताल, सुर हैं और सम भी
धूप और बारिश की छम भी
कभी ज्यादा कभी कम भी
इनके चलते मैं छहों ऋतुएं हूँ
हूँ ना एक कम भी ।

सब को खुशियां बांट दूं मै
पीर सबकी हर सकूँ मै
हार हूँ या जीत हूँ मै
इस जहां की रीत हूँ मै
मौन हूँ और गीत हूँ मै
हर जनम में हो सकूं मैं
पहले से कुछ अधिक बेहतर ।


चित्र गूगल से साभार


मंगलवार, 18 सितंबर 2012



आईये गणराज, वंदन
शुभ-सुफल हो आगमन ।।

द्वार पर है आम्रतोरण
रंगोली से सजा आंगन
रोली अक्षत औ नीरांजन
आपका करें अभिनन्दन ।। आईये

जगमगाता सारा प्रांगण
मखर अद्भुत सरस अनुपम
वस्त्र नव सब किये धारण
स्वागत में खडे भक्त-जन ।। आईये...

रोली, दुर्वा, फूल चन्दन
मोदक प्रिय मिष्ट-अन्न
हो रहा पूजन औ अर्चन
गा रहे आरती भक्त गण । आईये..

आपदा दूर हो गजानन
कार्य सारे हो बिन-विघन
सुबुद्धि पायें भटके जन
यही मनन है और चिंतन ।। आईये 

मंगलवार, 11 सितंबर 2012

अंतर्विरोध




सन्नाटे की गूंज सुनाई देती है
और गर्जन का मौन दिखाई देता है
अंधकार के बीच उजाले का बिन्दू
अंधकार को चीर दिखाई देता है ।

दोपहरी सी तपती इस रेत पर भी
छाया का आभास हुआ सा लगता है
वर्षा के घनघोर बरसते बादल में
किसी किरण का ठौर दिखाई देता है ।

दुख के इस घने घने अंधियारे में
सुख की बांसुरी सुनाई देती है
और सुखों के बीच न जाने अंदर तक
ये मन क्यूं बेचैन दिखाई देता है ।

प्रेम ताल में डूबते उतराते हुए
बेरुखी का छेद दिखाई देता है ।
और प्रिया की झुकी झुकी सी आँखों में
जाने क्यूं कुछ भेद दिखाई देता है ।

उनकी ना ना करनें की आदत में भी
हाँ हां की आवाज सुनाई देती है
और मेरे लिखने रुकने के झूले में
लिखने का ही विचार दिखाई देता है ।

सोमवार, 3 सितंबर 2012

मै हूँ ना




फैले संध्या रंग क्षितिज पर
सिंदूरी, गुलाबी गहरे
इन रंगों का साथ क्षणों का
छायेंगे धीरे धीरे अंधेरे

ऊदी और सलेटी बादल
परदे से, ढक लेंगे नज़ारे
सांवली रजनी के चुनरी में
टंक जायेंगे झिल मिल तारे

दिन की चहल पहल कोलाहल
शाम की वो रंगीन फिज़ाये
झट से रीत बीत जायेंगी
गहन रात के वारे न्यारे

अजीब सी सिहरन लगती है
देह सिमटने सी लगती है
आशंकाओं की परछाई
दीवारों पर घिर आती हैं

ह्रदय उछल कर मुंह को आता
हाथ पांव नम हो जाते हैं
अज्ञात हवाओं के झोकों से
 बर्फीली ठंडक आती है ।

इन सब में चुपचाप खडी मैं
दीवार से सहारा लेकर
छत गिरने के इंतजार में
निश्चल, विवश और भय कातर ।

इतने में इक किरण कहीं से
पडती है मेरी आँखों पर
कहती है, मै हूँ ना मन में,
फिर तुमको बोलो किसका डर ।

इसी रोशनी को मन में रख
जीवन में आगे जाना है
और अंत में भी हम सब को
इसी उजाले में जाना है ।