शुक्रवार, 28 अगस्त 2015
सोमवार, 3 अगस्त 2015
हवा
हवा ये किस तरह बहने लगी है ,
कितना काला धुआँ सहने लगी है।
घुली इस में भी सच्चाई कभी थी,
ज़ुल्म अब झूट के सहने लगी है।
गूँजते थे इसमें कह-कहे भी,
ज़ुल्म अब झूट के सहने लगी है।
गूँजते थे इसमें कह-कहे भी,
चीख सन्नाटे की कहने लगी है।
महकती थी कभी जो मोगरे सी,
बदबू इसमें से अब आने लगी है।
शोख कलियों का दामन थामती थी,
गर्म अंगार सी दहने लगी है।
रूमानी हुआ करता था मौसम,
बंदूके धांय धुम, चलने लगी हैं।
हवा का रुख ही है बदला हुआ सा,
लुभाती थी, डराने क्यूं लगी है।
चित्र गूगल से साभार।
चित्र गूगल से साभार।
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