रविवार, 27 नवंबर 2011

इस देस में वापस आकर

इस देस में वापस आकर, कितना अच्छा लगता है
इसका सच्चा झूठा किस्सा सारा सच्चा लगता है ।

इसकी धूल भरी सडकें और इसका धूमिल आसमान
गाता या रोता हर कोई अपना बच्चा लगता है ।

इसकी धुंद और इसके कोहरे, इसकी ठंडक और गर्मी
इसका हर मौसम इस दिल को सचमुच अच्छा लगता है ।

ताजे अमरूदों के ठेले, सिंघाडों की हरियाली
देख के ये प्यारे से नजारे मन कच्चा कच्चा लगता है ।

इसके वृक्ष बबूल के हों या हों रसीले आमों वाले
हम को तो हर पेड से लटका प्यार का गुच्छा दिखता है ।

पार्कों में मिलते वो पडोसी जो न कभी मुस्कायेंगे
उनकी चढी त्यौरियों पीछे कुछ अपनापा लगता है ।

सुंदर स्वच्छ परदेस में चाहे कितने ही सुख क्यूं न मिले
देसी घुडकी खा कर भी रबडी का लच्छा लगता है ।

शुक्रवार, 11 नवंबर 2011

चलते चलते मोड पर

चलते चलते मोड पर
कैसे बदल गये रस्ते
तुम चले गये उधर
ठगे से हम रहे इधर ।

कहां तो पिरोये थे
बकुल पुष्प हार
कहा था खुशबू इनकी
रहेगी साल हजार

वे भी कहीं पडे होंगे
बकुल वृक्ष के नीचे
या कूडे के ढेर में
सोये हों अखियां मीचें ।

मेरी किताबों में दबे
वे खत तुम्हारे लिख्खे
वे प्रेम रस में पगे
अक्षर सारे पक्के ।

कैसे मै भूलूं उनको
कैसे मिटाऊँ दिल से
पलक की कलम से
उतारे जो गये दिल पे ।

ये क्या हुआ सोचूं
सोचूं ये क्यूं हुआ
वो प्यारा सा सपना
क्यूं हुआ धुआं धुआं ।

कभी राह में अब
जो मिल गये हम से
नज़र बचा कर जाना
न तकना, कसम से ।

सह न पाऊँगी तुम्हारी
वह बनावट की हंसी
गले की अटकी फांस
हाय ह्रदय में फंसी ।

मंगलवार, 1 नवंबर 2011

कुछ अच्छा नही लगता


चांद भी आज जाने क्यूं कुछ मुरझाया सा है,
इसे भी मै तुम्हारे बिन, कुछ अच्छा नही लगता ।

सांस आती भारी सी है, तनहाई में उदासी है,
रूह भी प्यासी प्यासी है और कुछ अच्छा नही लगता ।

तुम वहां खंबे से टिक कर शून्य में तक रही होगी,
सोचती तुम भी तो होगी कि कुछ अच्छा नही लगता ।

तुम्हारी यादों का चेहेरा तुम्हारी खिलखिलाती हंसी
मुझे कितना सताती है और कुछ अच्छा नही लगता ।

बहुत कुछ सोच कर हमने किया था फैसला ये फिर,
क्यूं तुमसे बिछड कर अब, कुछ अच्छा नही लगता ।

अब दूरी और ये मुझसे सही बिलकुल नही जाती
चली आओ तुम्हारे बिन अब अच्छा नही लगता ।


चित्र गूगल से साभार ।