शुक्रवार, 22 जुलाई 2016

वो दिन हवा हुए

वो दिन हवा हुए, जब पसीना था गुलाब,
आँखों में रंग थे और थे सुनहरे ख्वाब।

मेरे सवाल से पहले आता था उनका जवाब,
जिस काम को छूते हम बन जाता था सवाब।

रौनकें लगी रहती थीं हर तरफ,
रोशनी के चाशनी का माहौल हर तरफ,
रातें थीं चांदनी की और हम थे माहताब।

अब आज का जिक्र क्यूं कर करेंगे हम,
यादों की जब रखी हुई है खुली किताब। 

शुक्रवार, 1 जुलाई 2016

छटने लगे हैं अंधेरे

छटने लगे हैं अंधेरे
घुल गये बादल घनेरे,
रोशनी सी फैलती है
किरणों ने डाले बसेरे।

अभी कुछ है धुंद बाकी,
अभी हैं साये हाँलाकि,
राहें नजर आने लगीं हैं,
उजलते मंजिल के डेरे।

नाव डगमग डोलती थी,
कुछ भंवर को तोलती थी,
ले ही आया है ये नाविक
धीरे धीरे तीरे तीरे।

अब है आगे तेज़ धारा,
पर है मजबूती सहारा,
मंजिल बहुत है दूर अब भी
पर है पथ दीपक उजेरे।

हम हैं तेरे साथ नाविक,
और ऊपर वाला मालिक,
तेरे हाथों हाथ देकर
चल पडें सारे के सारे।

चित्र गूगल से साभार।