शुक्रवार, 23 सितंबर 2011

खिडकी


मेरे मन का उजाला ये, तुम तक भी पहुँच जाता
जो अपने दिल की इक खिडकी, कभी तुम भी खुली रखते ।

बस आँखें बंद करने से, मुश्किलें कम नही होती
तुम भी यह जान ही जाते जो आँखों को खुला रखते ।

हमेशा खुद को वंचित करके, दूसरा खुश नही होता,
सच मानो मै भी खुश होती, जो तुम खुद के लिये जीते ।

मन के अंदर जो दुख पनपे, हँसी होंठों पे कैसे हो,
दिल से तब मुस्कुराते तुम, जो खुद अपनी खुशी चुनते ।

तपस्या, त्याग ये सब कुछ तब तक ही सही लगता
करो जिसके लिये ये सब, वे खुद कुछ कद्रदाँ होते

मै तो इस प्यार से अपने, जगमगा कर रखूँ आंगन
कभी तुम भी सुधर जाओ और आ जाओ इस रस्ते ।


चित्र गूगल से साभार

सोमवार, 12 सितंबर 2011

फालतू

संवाद थम जाता है माँ के साथ,
जब छूट जाता है बचपन का आँगन
चिठ्ठियों का अंतराल लंबे से लंबा होता चला जाता है
और सब सिमट जाता है एक वाक्य में,
“ कैसी हो माँ “ ?
माँ का जवाब उससे भी संक्षिप्त,
“ठीक” ।
पर उसकी आँखें बोलती हैं,
उसकी उदासी कह जाती है कितना कुछ ,
उसका दर्द सिमट आता है चेहेरे की झुर्रियों में
जब होता है अहसास उसको अपने फालतू हो जाने का ।

गुरुवार, 1 सितंबर 2011

हे गणराय कुछ हमारी भी सुनो



आज आये हो तो अब रहोगे ना दस दिन
और सुनोंगे ना भक्तों की फरियाद,
तुम्हें तो रहता ही नही कुछ याद ।

कितने वर्षों से पूज रहे हैं तुम्हें
कि कुछ तो हमारी भी सुनी जाये
पर कुछ सुनवाई ही नही हो रही
लगता है भारत सरकार पे कुछ
ज्यादा ही मेहरबानी है तुम्हारी ।

इतने बडे कानों में हमारा रुदन
नही जा रहा कितनी अजीब है बात ?
पेट में डाले जा रहे हो
सरकार के तो सारे अपराध
और हमसे आँखें चुरा रहे हो ।

मत करो ना ऐसा,
तनिक हमारी और भी ये स्नेह
की सूंड बढाओ और करो स्नेह सिंचन
ता कि बोल उठे हमारा भी मन,
गणपति बाप्पा मोरया
मंगल मूर्ती मोरया ।