बचपन में दीवाली की खुशी कुछ और ही होती थी। पांच या छह दिन
मनाया जाता था ये त्यौहार। गोवत्स द्वादशी या वसुबारस के दिन से दीवाली शुरु, फिर
धन तेरस, नरक चौदस या छोटी दीवाली, लक्ष्मी पूजन या बडी दीवाली, पडवा या अन्नकूट
(गोवर्धन पूजा) और भाई दूज।
दीवाली से आठ दिन पहले ही शुरु हो जाती थी घर की साफ सफाई,
रंगाई पुताई। सारे साल का जमा कूडा करकट निकाला जाता, कबाड हटाया जाता या फिर साफ
सूफ कर के वापिस रख दिया जाता। कुम्हारिनें घर घर दिये बेचने आतीं, और सौ पचास
दिये बेचे बगैर नही जातीं। हाट में से गणेश लक्ष्मी की मूर्तियां खरीदी जातीं और
लक्ष्मीजी का चित्र जो हर साल नया खरीदना जरूरी होता और यह चित्र हमेशा गजान्त लक्ष्मी का होता। बीच में लक्ष्मी जी और दोनो तरफ माला लिये हाथी या फिर लक्ष्मीजी का अभिषेक करते हुए। कपास की बत्तियां बना कर रख
ली जातीं।
दिये रात भर पानी में भिगो के रखे जाते ताकि तेल वे खुद ही
ना सोख लें।
वसु-बारस के दिन
माँ का व्रत होता, ये व्रत वे संतान की लंबी आयु के लिये रखतीं। शाम को ग्वाला आता
गाय और बछडा लेकर, हमारे यहां कोई गाय तो थी नही। मां उनकी पूजा करतीं आरती
उतारतीं और उन्हें गेहूँ और गुड खिलातीं।
धनतेरस के दिन शाम को बर्तन खरीदारी होती इस दिन नया बर्तन
खरीदना शुभ होता है। बर्तन बाजार, लोगों से और बर्तनों से भरे रहते। चमकते पीतल
तांबे और स्टील के बर्तन बहुत प्यारे लगते। इस शाम एक दिया बाहर जरूर जलाया जाता
इसकी जोत दक्षिण दिशा की और की जाती ताकि किसी की अपमृत्यु ना हो।
इन्ही दिनों घर में पकवान बनने शुरु हो जाते। बाजार की
मिठाई भोग के लिये नही चलती थी। लड्डू,
गुजिया, शक्करपारे, चकली, सेव, अनरसे और क्या क्या।
नरक चौदस के दिन
अभ्यंग स्नान होता, सब का। वह भी सूर्योदय से पहले।
माँ हमें चार बजे ही उठा देती। उसके पहले तांबे के चमकते
बंबे में गरम पानी तैयार रहता दीवाली से पहले हम उसे इमली लगा कर, राख से मांज कर
चमका देते। माँ हमें सुगंधी तेल से मालिश
करती फिर तिल के उबटन से मल मल कर सारा तेल हटाती। खुशबूदार शिकेकाई पाउडर
से जो घर में ही माँ बनाती केश धुलाती इस खुशबू का राज था कपूर कचरी और जटा मासी,जो इसमें कूट
कर मिलाई जाती। जो नहा रहा होता उसके लिये दूसरे भाई बहन फुल-झडियां जलाते।
नये कपडे पहना कर आरती उतारती और फिर होता बहु-प्रतीक्षित
फराळ। शाम को कम से कम पांच दिये घर के बाहर और हर कमरे में एक ऐसे जलाये जाते, इसमें स्नान घर और शौचालय भी शामिल थे। कई बार नर्कचौदस और दीवाली एक ही दिन पडते
तब तो बस सुबह से रात तक धूम ही धूम।
पिताजी थोडे थोडे पटाखे सबके हिस्से के लाते। अनार, चिटपिटी
जो जमीन पर घिसते ही हरी पीली रोशनी देती और आवाज भी करती, सांप जो जलाने पर सांप
की शकल में राख बनता, फुलझडी जो रोशनी के फूल झराती, चक्री जो सुदर्शन चक्र की तरह जमीन पर तेजी से गोल
गोल घूमती, लहसनी पटाखे जो जोर से जमीन पर फेंकते ही धमाका करते।
शाम होते ही बीस पच्चीस दिये बाहर जलाये जाते और हर कमरे
में एक। लक्ष्मी जी के स्वागत के लिये हर कमरा उजास से भरा।
लक्ष्मी पूजा की तैयारी की जाती, मूर्ती, चित्र तथा नयी झाडू की भी पूजा
होती। खील बताशे और पकवान सजाये जाते। खील बर्तन में तब तक भरी जाती जब तक बिखरे
ना यह समृध्दी के लिये किया जाता।
पूजा के बाद फिर प्रसाद ग्रहण और पटाखे चलाना जो सबसे
आनंद-दायी काम लगता कम से कम तब तो। बारह बजे तक सब जगे रहते द्वार भी खुला रहता।
अगले दिन पडवा होता इस दिन माँ और बेटियां पिताजी की तेल और
उबटन से मालिश करतीं आरती उतारतीं और उपहार पातीं। हमारी बूआजी के यहां अन्नकूट का
भंडारा होता तो शाम का खाना उनके यहां।
भाईदूज को भाइयों का औक्षण किया जाता और उनके लंबी आयु की
कामना की जाती। भाई लोग चिढा चिढा कर खूब मालिश करवा लेते, उपहार तो मिलता ही। हर दिन खाने पीने की रेल चेल रहती।
और भाई दूज के साथ ही दीवाली का ये त्यौहार समाप्त हो जाता।
इसी दिन बचे खुचे पटाखे भी जला कर खत्म किये जाते।
आज उस दीवाली की याद बहुत जोरों से आई तो सोचा आपके साथ
बाटूँ ये यादें। तो,
लक्ष्मी जी की प्रार्थना से करें इसका समापन।
पद्माक्षी, पद्मगंधा, पद्मवदना, पद्मिनि,
लक्ष्मी, अदिति, दीप्तां, श्रिया, दारिद्र्यध्वंसिनि,
धनधान्य-करीं, सौम्या, विष्णुह्रदय वासिनि,
नमामि भास्करीं, अनघा, दारिद्र्य, दुःख हारिणि।
सब ब्लॉगर बंधु भगिनियों को दीवाली की बहुत शुभ कामनाएँ।
चित्र गूगल से साभार।