रविवार, 9 अगस्त 2020

मैं प्रपंच गुड की मकखी

मैं प्रपंच गुड पर बैठी मक्खी,

गुड पर बैठ बैठ इतराऊँ

अपने देह ताप से और लार से

पिघले गुड से मधु रस पाऊं

रस पीते पीते खूब अघाऊं

पता ना चले कैसे गुड में

धंसती ही जाऊँ।।मैं

खुली हवा मुझको पुकारे

पर चाहूँ भी तो उड़ ना पाऊँ

जितनी कोशिश करती जाऊँ

ज़्यादा ही ज़्यादा धंसती जाऊँ।। मैं

लोभ मोह से भला किसी का

कब होता है, लालच में जो 

लिप्त हुआ जीवन खोता है

समय जाय जब बीत तब पछताऊँ

मैं प्रपंच गुड में लिपटी मक्खी।