सोमवार, 7 दिसंबर 2015

तुमसे अलग

,


कितना खालीपनहोता है,
 कितना सन्नाटा,
रहती हूं जब, तुमसे अलग

कितना सुरक्षित, लगता है उडना
मन पंखों पर,
रहती हूँ जब तुम्हारे साथ।

मेरा क्या है, हूँ भी या नही
क्या फर्क पडता है,
होकर तुमसे अलग। 

तुम्हारे साथ मै, 
मै कहाँ होती हूँ,
रहते हो बस तुम ही।

न कोई साज, 
न सजने की कोई इच्छा
जगती है, हो कर तुमसे अलग।

चहरे पर रौनक ,मन रुनझुन,
खनकते हैं कंगना,
तुम्हारे साथ।

रहना है यूँ ही साथ साथ,
बस नही रहना
तुमसे अलग। 


चित्र गूगल से साभार।



शनिवार, 21 नवंबर 2015

दीवाली तो मन गई

दीवाली तो मन  गई, फैला खूब उजास,
दीवाली के बाद अब कूडा करकट त्रास।

साफ एक दिन और बाकी सब दिन मैले मैले,
ऐसा तो नही चलता भैये, सीख कुछ ले ले।

रोज ही घर  रखना चमका कर सुथरा सुथरा,
पकवान भले ना रोज पर हो खाना सुधरा।

घर के बाहर का भी थोडा ध्यान रखोगे,
कूडा, करकट, जूठन गली में ना फेंकोगे।

तली, खुली, चीजों का सेवन नित-नित करना,
फल सब्जी को धोने के पहले ही चिरना।

इन सब से बचना खुली हुई चीज न खाना,
सब्जी हो या फल इनको धोकर ही खाना।

थोडासा ये ध्यान यदि हम सब रक्खेंगे,
सदा रहेंगे स्वस्थ, मस्त, और काम करेंगे।

मोदीजी के स्वच्छता अभियान से प्रेरित


शनिवार, 7 नवंबर 2015

बचपन की दीवाली





बचपन में दीवाली की खुशी कुछ और ही होती थी। पांच या छह दिन मनाया जाता था ये त्यौहार। गोवत्स द्वादशी या वसुबारस के दिन से दीवाली शुरु, फिर धन तेरस, नरक चौदस या छोटी दीवाली, लक्ष्मी पूजन या बडी दीवाली, पडवा या अन्नकूट (गोवर्धन पूजा) और भाई दूज।
दीवाली से आठ दिन पहले ही शुरु हो जाती थी घर की साफ सफाई, रंगाई पुताई। सारे साल का जमा कूडा करकट निकाला जाता, कबाड हटाया जाता या फिर साफ सूफ कर के वापिस रख दिया जाता। कुम्हारिनें घर घर दिये बेचने आतीं, और सौ पचास दिये बेचे बगैर नही जातीं। हाट में से गणेश लक्ष्मी की मूर्तियां खरीदी जातीं और लक्ष्मीजी का चित्र जो हर साल नया खरीदना जरूरी होता और यह चित्र हमेशा गजान्त लक्ष्मी का होता। बीच में लक्ष्मी जी और दोनो तरफ माला लिये हाथी या फिर लक्ष्मीजी का अभिषेक करते हुए। कपास की बत्तियां बना कर रख ली जातीं।
दिये रात भर पानी में भिगो के रखे जाते ताकि तेल वे खुद ही ना सोख लें।
  वसु-बारस के दिन माँ का व्रत होता, ये व्रत वे संतान की लंबी आयु के लिये रखतीं। शाम को ग्वाला आता गाय और बछडा लेकर, हमारे यहां कोई गाय तो थी नही। मां उनकी पूजा करतीं आरती उतारतीं और उन्हें गेहूँ और गुड खिलातीं।

धनतेरस के दिन शाम को बर्तन खरीदारी होती इस दिन नया बर्तन खरीदना शुभ होता है। बर्तन बाजार, लोगों से और बर्तनों से भरे रहते। चमकते पीतल तांबे और स्टील के बर्तन बहुत प्यारे लगते। इस शाम एक दिया बाहर जरूर जलाया जाता इसकी जोत दक्षिण दिशा की और की जाती ताकि किसी की अपमृत्यु ना हो। 
इन्ही दिनों घर में पकवान बनने शुरु हो जाते। बाजार की मिठाई भोग के लिये नही चलती थी।  लड्डू, गुजिया, शक्करपारे, चकली, सेव, अनरसे और क्या क्या।
  नरक चौदस के दिन अभ्यंग स्नान होता, सब का। वह भी सूर्योदय से पहले।
माँ हमें चार बजे ही उठा देती। उसके पहले तांबे के चमकते बंबे में गरम पानी तैयार रहता दीवाली से पहले हम उसे इमली लगा कर, राख से मांज कर चमका देते। माँ हमें सुगंधी तेल से मालिश  करती फिर तिल के उबटन से मल मल कर सारा तेल हटाती। खुशबूदार शिकेकाई पाउडर से जो घर में ही माँ बनाती केश धुलाती इस खुशबू का राज था कपूर कचरी और जटा मासी,जो इसमें कूट कर मिलाई जाती। जो नहा रहा होता उसके लिये दूसरे भाई बहन फुल-झडियां जलाते।
नये कपडे पहना कर आरती उतारती और फिर होता बहु-प्रतीक्षित फराळ। शाम को कम से कम पांच दिये घर के बाहर और हर कमरे में एक ऐसे जलाये जाते, इसमें स्नान घर और शौचालय भी शामिल थे। कई बार नर्कचौदस और दीवाली एक ही दिन पडते तब तो बस सुबह से रात तक धूम ही धूम।

पिताजी थोडे थोडे पटाखे सबके हिस्से के लाते। अनार, चिटपिटी जो जमीन पर घिसते ही हरी पीली रोशनी देती और आवाज भी करती, सांप जो जलाने पर सांप की शकल में राख बनता, फुलझडी जो रोशनी के फूल झराती, चक्री जो सुदर्शन चक्र की तरह जमीन पर तेजी से गोल गोल घूमती, लहसनी पटाखे जो जोर से जमीन पर फेंकते ही धमाका करते।
शाम होते ही बीस पच्चीस दिये बाहर जलाये जाते और हर कमरे में एक। लक्ष्मी जी के स्वागत के लिये हर कमरा उजास से भरा।  लक्ष्मी पूजा की तैयारी की जाती, मूर्ती, चित्र तथा नयी झाडू की भी पूजा होती। खील बताशे और पकवान सजाये जाते। खील बर्तन में तब तक भरी जाती जब तक बिखरे ना यह समृध्दी के लिये किया जाता।
पूजा के बाद फिर प्रसाद ग्रहण और पटाखे चलाना जो सबसे आनंद-दायी काम लगता कम से कम तब तो। बारह बजे तक सब जगे रहते द्वार भी खुला रहता।
अगले दिन पडवा होता इस दिन माँ और बेटियां पिताजी की तेल और उबटन से मालिश करतीं आरती उतारतीं और उपहार पातीं। हमारी बूआजी के यहां अन्नकूट का भंडारा होता तो शाम का खाना उनके यहां।
भाईदूज को भाइयों का औक्षण किया जाता और उनके लंबी आयु की कामना की जाती। भाई लोग चिढा चिढा कर खूब मालिश करवा लेते, उपहार तो मिलता ही। हर दिन खाने पीने की रेल चेल रहती।
और भाई दूज के साथ ही दीवाली का ये त्यौहार समाप्त हो जाता। इसी दिन बचे खुचे पटाखे भी जला कर खत्म किये जाते।
आज उस दीवाली की याद बहुत जोरों से आई तो सोचा आपके साथ बाटूँ ये यादें। तो,
लक्ष्मी जी की प्रार्थना से करें इसका समापन।

पद्माक्षी, पद्मगंधा, पद्मवदना, पद्मिनि,
लक्ष्मी, अदिति, दीप्तां, श्रिया, दारिद्र्यध्वंसिनि,
धनधान्य-करीं, सौम्या, विष्णुह्रदय वासिनि,
नमामि भास्करीं, अनघा, दारिद्र्य, दुःख हारिणि।

सब ब्लॉगर बंधु भगिनियों को दीवाली की बहुत शुभ कामनाएँ।


चित्र गूगल से साभार।







शनिवार, 17 अक्तूबर 2015

पोर्टलैन्ड हार्बर ओर आयलैन्डस् क्रूझ।


 अभी हाल ही हम घूम कर आये अमित (हमारा छोटा बेटा) के यहां से । अमित, डरहम, न्यू हैम्पशायर में रहता है । वहां से मेन राज्य आधे घंटे के ड्राइविंग अंतर पर है। कैनडा से लगे इस मेन राज्य का एक महत्व पूर्ण शहर है पोर्टलैन्ड। यह एक बंदरगाह भी है। यहां से कई छोटी बडी नौका और जहाजी सैर (क्रूझेज) आयोजित की जाती हैं।  एक शनिवार को अमित ने एक क्रूझ का कार्यक्रम बनाया । यह कोई पौने दो घंटे की सैर थी कॉसेको-बे की। कॉस्को बे में छोटे बडे मिलाकर कोई चौरासी द्वीप हैं । इनमें से बहुत से तो केवल जंगल ही है पर कई बसे हुए हैं। इन में कईयों पर लाइटहाउस बने हुए हैं। इस क्रूझ में हम छह द्वीपों की सैर करने वाले थे। जैसे कि सब जानते हैं अंग्रेज यहां आकर बसे और उन्होने अपने माल की यानि जहाजों की सुगम आवा-जाही के लिये लाइट हाउस बनाये। मेन राज्य अमेरिका का अंतिम उत्तर-पूर्वी राज्य है। कनाडा और इसके बीच केवल समुद्र ही है।
 कॉस्को बे, गल्फ ऑफ मेन का एक इनलेट है जो मेन राज्य के दक्षिणी किनारे पर है। इसका पुराना नाम ऑकोसिस्को था जो एक एबेनाकी नाम है (यहां के मूल निवासी)।  पुर्तगाली एक्सप्लोरर गोभा ने इसे कॉस्को-बे  नाम दिया।
हमारी एक 70-75 सीटों वाली मेकेनाइज्ड बोट थी इस पर एक डेक भी बना था। यहां से नज़ारा ज्यादा अच्छे से देखा जा सकता था। पानी से मुझे वैसे ही बहुत प्रेम है। पानी से, चाहे वह समंदर हो नदी हो या जलाशय, जगह की सुंदरता में चार चांद लग जाते हैं। बशर्ते की साफ स्वच्छ पानी हो।

 हमारी क्रूझ साढे चार बजे शुरु होने वाली थी। अमित ने बुकिंग फोन पर ही कर ली थी। अमित, अर्चना (हमारी बहू), उनके दोनो प्यारे से बच्चे यश और श्रेया और मै तथा सुरेश, हम छह लोग थे। हम घर से साढे तीन बजे निकले और सवा चार बजे पोर्टलैन्ड हार्बर पहुंच गये। वादा था कि हम बहुत पांच छह द्वीप लाइट हाउस तथा सील्स देख पायेंगे। हम बोट पर गये तो अमित सुरेश और यश डेक पर चले गये। हवा बहुत तेज थी तो मै अर्चना और श्रेया अंदर आ कर बैठ गये।




 ठीक चार चालीस पर हमारी बोट चल पडी। शुरु शुरु में तो पोर्टलैन्ड शहर ही दिख रहा था।
पीक द्वीप
थोडी देर बाद दिखा पीक द्वीप। यह पोर्टलैन्ड से कोई 3 मील दूर है करीब करीब इसी का हिस्सा। यह सबसे बडी बस्ती वाला द्वीप है। पहले इसे कोनी द्वीप के नाम से जाना जाता था। यहां रेस्तराँ, म्यूजियम, कॉटेजेस थियेटर सब है  कायाकिंग और गोल्फ खलने की भी सुविधा है। पर हम तो इसे दूर से ही देखने वाले थे। थोडी देर बाद मैने भी सोचा कि डेक पर हो आती हूँ। पानी और हवा को नजदीक से जानती हूँ, पर वहाँ तो हवा ऐसी तेज थी कि मुझे लगा कि बचे खुचे बाल भी हवा में उड जायेंगे। तो लौट के बुध्दू वापिस अंदर।
पानी में हमारी बोट के अलावा और भी बहुतसी तरह तरह की नौकायें थीं बहुत से पक्षी भी खाने पीने की तलाश में उड रहे थे और पानी में गोते लगाने की कोशिश में थे। हमने आगे देखा एक पथरीला द्वीप, इसके एक छोर पर बिलकुल आदमी के चेहरे की आकृति बनी थी।





रैम लैज द्वीप-

आगे हमने देखा सबसे पुराना लाइट हाउस रैम लेज द्वीप पर।

 यह पोर्टलैन्ड हारबर के मुहाने पर ही है। यह रैम आयलैन्ड से 100 मीटर अंदर है। रैम आयलैन्ड लेज यह इस द्वीप से निकली कोई एक चौथाई मील लंबी पट्टी है जो आरी की तरह किनारे वाली है। यह नाविकों के लिये काफी खतरनाक और डरावनी जगह मानी जाती रही है। केलिफोर्निया के एक जहाज की 1900 में  यहां दुर्घटना होने के बाद 1902 में यह लाइट हाउस बनाया गया। अब क्यूं कि यहां बहुत से लाइट हाउस हो गये हैं उसकी उपयोगिता उतनी नही रही । अब यह व्यक्तिगत मालिक की संपत्ती है जिसने इसे सिर्फ मैन स्टेट में रखने के लिये खरीदा । यह बंद है पर शायद लाइट अभी भी जलती है।

पोर्टलैन्ड हेड लाइट - यह कैप एलिझाबेथ द्वीप पर बना एक ऐतिहासिक लाइटहाउस है। इसे प्रथम राष्ट्रपति जॉर्ज वॉशिंगटन की पहल पर 1787 से 1791 तक बनाया गया। यह पोर्टलैन्ड हार्बर के मुहाने पर ही स्थित है। यह सबसे पुराना लाइट हाउस है। पहले इसमें लाइट व्हेल की चरबी से जलाई जाती थी पर अब यह पूरी तरह से बिजली से चलता है।
अमेरिकन सिविल वॉर के दौरान इसकी ऊँचाई 20 फीट बढाई गई ताकि दूर से लाइट नजर आये। पर बाद में कम कर दी गई। यह अब कोस्ट गार्ड की देख रेख में है।



   
बग लाइट पार्क - यहां से पोर्टलैन्ड शहर का सुंदर दृष्य दिखता है पर हम तो यह अपने बोट से ही देख रहे थे। यह द्वितीय विश्वयुध्द के दौरान जहाज बनाने का एक बडा ही महत्व पूर्ण अड्डा था। यहाँ 1941 से 1945 के दौरान कोई 30,000 लोग काम में लगे हुए थे। ये लोग न्यू इंग्लैंड शिप बिल्डिंग कारपोरेशन और साउथ पोर्टलैन्ड शिप बिल्डिंग कारपोरेशन के लिये जहाज बना रहे थे। आज कल यह बोटिंग तोथा पिकनिक के लिये एक उत्तम स्थान माना जाता है।
बग लाइट या पोर्ट लैन्ड बैक वॉटर लाइट हाउस जब 1855 में बनाया गया तब बहुत ही छोटासा लकडी का लाइट हाउस था इसकी छोटी आकृति की वजह से इसे बग लाइट कहने लगे। बाद में 1875 में इसकी जगह एक नया सुंदर ग्रीक आर्किटेक्चर पर आधारित
लाइट हाउस बना।  इसकी देखभाल की जिम्मैदारी सिटी ऑफ साउथ पोर्टलैन्ड पर है।


स्प्रिंग पॉइन्ट लाइट हाउस- यह लाइटहाउस 1897 में तब बनाया गया जब बहुतसे शिप कंपनियों ने  जहाजों की स्प्रिंग पॉइंट-लेज से टकराने की शिकायत की। इसमें एक फॉग बेल भी लगाई गई जो हर 12 मिनिट पर बजती थी।


समय समय पर इसमें कई सुधार किये जाते रहें। इसे 1934 में बिजली से चलाया जाने लगा और इसको  मुख्य जमीन से जोडने के लिये 900 फुट लंबा ग्रेनाइट का ब्रेक वॉटर बनाया गया । पहले इसकी देखभाल का जिम्मा कोस्ट गार्डस का था पर अब यह स्प्रिंगपॉइन्ट लेज लाइट ट्रस्ट के जिम्मे है।

हमने एक ऐसा द्वीप भी देखा जहां केवल चार परिवार रहते हैं और वे किसी और को यहाँ जमीन खरीदने भी नही देते।
 बोट पर खाने पीने की चीजें भी बिक रहीं थी जैसे कि अमूमन होता है और बच्चे साथ हों तो इस को अनदेखा बिलकुल नही कर सकते। श्रेया और य़श नें भी हंग्री हंग्री की रट लगा रखी थी। तो खाने पीने का सामान खरीदा गया, हमने भी थोडा चबैना चख लिया।

बहुत से द्वीप केवल जंगल हैं जहां पर कोई बस्ती नही है।

टू लाइट टॉवर- यह सन 1828 में कैप एलिझाबेथ में बनाया गया। शुरु में इसके दो  पथ्थर से बनाये गये टॉवर्स थे। मेन राज्य में इस तरह का यह पहला लाइट हाउस था। इसके दो लाइट्स कॉस्को बे के मुहाने से पोर्टलैन्ड हारबर तक का रास्ता उजागर करते थे। यह बाद में यह कास्ट आयरन से बनाया गया और इसमें फ्रेझनेल लेन्स भी लगाये गये। 1924 में  खर्च कम करने के लिये सारे ट्विन लाइटस् को एक ही लाइट में बदल दिये।अब इसका एक ही टॉवर दिखता है और इसकी रोशनी काफी तेज है।
                                                           

ये सारे लाइट हाउस और द्वीप देखते देखते समय बहुत बढिया गुजर रहा था। कहीं उतरना तो था नही बस बोट में बैठ कर कमेंट्री सुननी थी। अब हमें देखना था फोर्ट गॉर्जेस। दूर से देखने पर यह किसी जेल सा दिखता है। इसका निर्माण   1008 में ही शुरु हो गया था पर  पैसे के अभाव में रुक गया, 1857 में काम फिर शुरु हुआ पर सिविल वॉर के दौरान काम में तेजी आई और यह 1865 में बनकर तैयार हो गया। द्वितीय महायुध्द के दौरान सबमरीन माइन्स को रखने की भूमिका निभाई थी। इसका नाम ब्रिटिश कर्नल फरडिनान्ड गॉरजेस के नाम पर रखा गया था।
फोर्ट गॉरजेस

अब हम देखने वाले थे इस सफर की सबसे दिलचस्प चीज। सील । हमारी बोट काफी आगे जाकर एक टीलेनुमा द्वीप के पास रुकी। वहां काफी सारी सील्स जिनको सी लॉयन  का  कझिन भी कहा जाता है धूप सेंक रही थीं। हमने विडियो लिया आप भी देखें। वहीं पर कोमरॉन नाम के बहुत सारे पक्षी भी थे। इस जगह बच्चों ने भी बहुत मजा लिया। सी लॉयन और इनमें दो प्रमुख अंतर ये हैं  कि इनके कान नही दिखते जब कि सी लॉयन के दिखते हैं और इनके फिनस् छोटे होते हैं । ये जमीन पर लोटते हैं और रेंगते हैं। सी-लॉयन जिनके फिन्स बडे होते हैं इन फिन्स पर चलते हैं।



सील्स को देखने के बाद वापसी के लिये बोट मुडी और पानी और द्वीपों का नजारा दुबारा से देखते हुए हम वापिस पोर्टलैन्ड हार्बर पर आ गये। 

इस छोटीसी नौका सैर का हमने खूब आनंद उठाया। आपको कैसा लगा?




चित्र गूगल से साभार।







मंगलवार, 15 सितंबर 2015

गणपति बाप्पा हमार

आँखों से करे जतन,
सूंड से सहलाये है।
गणपति बाप्पा हमार,
कितना मन भाये है।

भादों की चौथ शुध्द
आगमन दिन उनका
दस दिन रह कर फिर
अपने घर को जाये हैं।

हाथों में पाशांकुश
अर्ध दंत पाये है,
हंसी मुख पे मन मोहक
वरद अभय दायें है।

मस्तक मुकुट सोहे
सूंड सरल, नयन मणि
मोदक दाये हाथों
पीतांबर पाये है।

उदर विशाल अति,
फणिवर कटि वस्त्र धरे,
भक्तन को सब गलति,
इसी उदर तो समाये है।

दस दिन रहकर बाप्पा,
आशीष दे  कर जाये ,
अपने इस भारत को
और भला बनाये हैं।

पूजा इनकी करें
दूब, जवा फूलों से,
बडे पंडाल, गाने
इनको कब भाये हैं।

दारू पीना थिरकना,
सिनेमा के गीतों पर,
इस से तो कान उनके
शोर से भर जाये है

जबरन चंदा लेना,
पैसा खूब उडाना
इससे तो मन उनका
रोष से भर जाये है।

मन में बस भाव रहे,
पूजा का चाव रहे
फिर मन को कैसे वे
खुशियों से भर जाये हैं।


शुक्रवार, 28 अगस्त 2015

राखी
















एक अनोखा बंधन राखी,
स्नेह सुगंधित चंदन राखी,
भगिनि ह्रदय का स्पंदन राखी,
भाई का अभिनन्दन राखी।



नही महज़ एक धागा राखी,
नही रुपैया गहना राखी,
अंतर तक कुछ गहरा गीला,
भाव-सिक्त सा गुंजन राखी।

सोमवार, 3 अगस्त 2015

हवा







हवा ये किस तरह बहने लगी है ,
कितना काला धुआँ सहने लगी है।

घुली इस में भी सच्चाई कभी थी,
ज़ुल्म अब झूट के सहने लगी है।

 गूँजते थे इसमें कह-कहे भी,
चीख सन्नाटे की कहने लगी है।

महकती थी कभी जो मोगरे सी,
बदबू इसमें से अब आने लगी है।

शोख कलियों का दामन थामती थी,
गर्म अंगार सी दहने लगी है।

रूमानी हुआ करता था मौसम,
बंदूके धांय धुम, चलने लगी हैं।

हवा का रुख ही है बदला हुआ सा,
 लुभाती थी, डराने क्यूं लगी है। 


चित्र गूगल से साभार।

शनिवार, 27 जून 2015

सफर

होगा कैसा वह सफर जो करना बाकी है अभी
ज्ञात से अज्ञात तक का अस्ति से नास्ति का भी

कैसी होगी राह वो  ले जायेगी जो मंजिल तलक,
पथ पूर्ण से शून्य का क्या जगायेगा  कोई ललक।

कौन सा होगा वो वाहन, जो पहुँचायेगा गंतव्य तक,
राह सरल सुगम होगी या फिर हो भरी कंटक ।

राह में होगा अंधेरा या होगा क्या प्रकाश भी,
व्याप्त केवल शून्य होगा या कोई विचार भी।


क्या मिलेंगे वहाँ सारे जो गये मुँह मोड कर,
या मेरे होने से न होने का ही होगा सफर।

क्या मै मिल पाउँगी वहाँ ज्ञान-देव के विठ्ठल से,
व्यास जी के क़ष्ण से उस रुक्मिणि देवी के वर से।

गीता में जो कह गये सभी मुझ तक आयेंगे,
मानो चाहे या न मानो मुझमें ही समायेंगे।

चित्र गूगल से साभार

मंगलवार, 26 मई 2015

अपराध बोध

देखें हैं मैने अपनों के कष्ट,
देखा है उन्हें पल पल घुलते
तिल तिल मरते,
पूर्ण अनिच्छा से छोडते हुए ये संसार।
जब कि बाकी था कितना कुछ पाना, उन्हें, अपने हिस्से का।
कितना सुख, कितनी पूरी होती आशाएं, आकांक्षाएँ
जो अधूरी छोड,जाना पडा उन्हें।
नही पूछी किसीने उनकी मर्जी
बस सज़ा सुनादी, उन्हें भी और उनके अपनों को भी।
और फिर वह दवाओं का अंबार, जिसमें से एक भी कारगर नही हो सकी,
वह बिस्तर, वह अपनों के मायूस चेहरे। भरे मन से इर्द गिर्द घूमना।
और उनका दिन गिनना, बस दिन गिनना।
हर दिन कम होती शरीर की ताकत,
हर दिन गहरे धंसती आंखें, गालों के गहराते खड्डे
हाथों पावों की हड्डियां, पतली होती जाती सिकुडती त्वचा,
और मेरा मुझमें से रोज कुछ टूटते जाना।
स्वयं के जीवित होने का अपराध बोध गहराते जाना।

रविवार, 17 मई 2015

पचास सालों का साथ



पचास सालों का साथ
पचास सालों की दोस्ती
पचास सालों के विवाद
पचास सालों के संवाद





पचास सालों का रहना
पचास सालों का सहना
पचास सालों का संसार
के सागर में बहना

पचास सालों का हंसना
पचास सालों का रोना
पचास सालों का रूठना
पचास सालों का मनाना

पचास सालों के सुख
पचास सालों के दुःख
पचास सालों के वार
पचास सालों का प्यार

पचास सालों की हार
पचास सालों की जीत
पचास सालों से जो निभाई
वह रिवाज़ और रीत

पचास सालों की विफलता
पचास सालों का साफल्य
पचास सालों बाद अब
अब कुम्हलाता जाज्वल्य

यही है आस  
लें न जबतक अंतिम सांस
सालों का अपना ये साथ
चले यूं ही साथ ही साथ।


गत 12 मई को हमने अपने विवाह की पचास वी वर्षगांठ मनाई। उस वक्त मनमें उठे कुछ भाव थे ये।

रविवार, 3 मई 2015

पांव अब भी इसी जमीन पे हैं।

जो दे अब भी खुशी, पुरानी जेब का वो सौ का नोट
तो जान लो कि पांव अब भी इसी जमीन पे हैं।

बचपन के दोस्तों से मिलो अब भी जो गले लग कर,
तो जान लो कि पांव अब भी इसी जमीन पे हैं।

साबुन को इस्तेमाल करो घिस के पतला होने तक,
तो जान लो कि पाँव अब भी इसी जमीन पे हैं।

गली में खेलते बच्चों की लपक लो तुम जो गेंद कभी,
तो जान लो कि पाँव अब भी इसी जमीन पे हैं।

माँ के हाथ की रोटी जो लगे पिझ्झा से प्यारी,
तो जान लो कि पाँव अब भी इसी जमीन पे हैं।

बच्चों को कहानी सुनालो जो किसी रात को तुम,
तो जान लो कि पाँव अब भी इसी जमीन पे हैं।

किसी बुजुर्ग को देखते ही रोक लो जो कार,
तो जान लो कि पाँव अब भी इसी जमीन पे हैं।

मेहमाँ के आते ही खिल जाये अब भी जो बाँछें
तो जान लो कि पाँव अब भी इसी जमीन पे हैं।

नयी जिंदगी में जो याद आयें पुराने हमदम
तो जान लो कि पाँव अब भी इसी जमीन पे हैं।



चित्र गूगल से साभार
इस कविता का आधार वॉटसएप पर पोस्टेड एक मराठी गद्य कविता है।




शनिवार, 18 अप्रैल 2015

तुम सुंदर हो ।




तुम सुंदर, तुमसे ये जग सुंदर
इस जग की सब बातें सुंदर
नदिया, पर्वत, बादल सुंदर
पशु, पक्षी और जंगल सुंदर
सागर, बालू, सीपी सुंदर
लहरातीं फसलें सुंदर
इस धरती की गोदी सुंदर
और आसमान की छत सुंदर
चंदा, तारे, बादल सुंदर
सूरज की किरणें सुंदर
बारिश की बूंदे सुंदर
पवन के झकोरे सुंदर
बिजली की चमकारें सुंदर
बादल की गड गड सुंदर
तेरा वह शांत रूप सुंदर
रौद्र रूप भी तो सुंदर
मै भी सुंदर, वह भी सुंदरं
तेरा प्रकाश सबके अंदर
हरलो मानव मन की कालिख
कर दो उसको निर्मल सुंदर
क्यूं कि तुम सुंदर हो।


चित्र गूगल से साभार।

शुक्रवार, 27 मार्च 2015

जनम हुवा राम का

पवित्र अति मास चैत्र , शुध्द नवमी की तिथी,
समय मध्यान्ह का, ना शीत ऊष्ण ना अति,
शीतल, सुगंधी पवन, मुक्त चहुं दिशि विचरता
जनम हुवा राम का, जनम हुवा राम का।

अयोध्या है हुई धन्य, कौशल्या तृप्त नयन,
दशरथ अति आनंदित,पुलकित रोमांचित तन
नया नया शिशु रुदन, रनिवास में गूंजता
जनम हुवा राम का...



सुहागिने चलीं लेकर जल कलश, थाल स्वर्ण
वाद्य मंगल बजते, गूंजते शगुन गान
आनंदित अवधपुरी, सरयू का जल महका
जनम हुवा राम का...

मोहक, राजिव नयन, कोशल्या के नंदन
पुत्र रूप नारायण, नीरद से शाम वरण
अवतरित हुए आज, आनंद बन जन जन का
जनम हुवा राम का...

सुमित्रा के पुत्र लखन, सुंदर अति शुभ लक्षण
कैकयी के पुत्र गुणी, भरत और शत्रुघन
हर्षित सब नर नारी, पूरण आंगन घर का
जनम हुवा राम का...

सुखमय सब अवधपुरी, आशाएँ हुईं पूरी
माता के हाथ आज झूले की रेशम डोरी
राजा ने खोल दिया द्वार भंडार का
जनम हुवा राम का...

कैसे शब्द अकिंचन, करें जन्मोत्सव वर्णन
भाव मन में सघन भरे, अश्रू पूरित नयन
नयनों के द्वार कैसे आनंद का घन बरसा
जनम हुवा राम का...



चित्र गूगल से साभार।

मंगलवार, 24 फ़रवरी 2015

कविता



टप टप टप बूँदों से आते शब्द नाचते,
झर झर झर धारा सी बहती है कविता।

सर सर सर लहराता जाता किसी का आँचल,
पायल की रुनझुन सी खनकती है कविता।

गुलशन में चटखती नन्ही नन्ही कलियाँ,
खुशबू वाली हवा सी बहती है कविता।




माँ की घुडकी, झिडकी और मीठी सी थपकी,
फिर उसकी लोरी सी बहती है कविता।

जच्चाघर से आती अजवायन की खुशबू,
और नन्हे रुदन सी बिलखती है कविता।

बादल की शिव के डमरू सी गड गड गड गड
और बिजली की लहर सी कडकती है कविता।

मन की कभी उदासी, कभी वो बेहद खुशियाँ,
मन के इन भावों सी बदलती है कविता।

तेरे, मेरे, और हम सब के जीवन जैसी,
कभी सरल तो कभी हठीली है कविता।


चित्र गूगल से साभार।

बुधवार, 11 फ़रवरी 2015

प्यार

प्यार होता है कब, कहाँ, कैसे,
खिल सा जाता है दिल कली जैसे।

मन में एक रागिनि लहराती है
हवा भी खुशबूएँ सी लाती हैं,
धूप में चांदनी नहाती है।
मौसम भी हो रहा भला जैसे।

कब कैसे कोई मन को भाता है,
बिन उसके कुछ नही सुहाता है,
कैसे यकायक से सब बदलता है,
सपना साकार उठा हो जैसे।
उसके ना दिखने से वो बेचैनी,
बात ना करने पे परेशानी,
और अपनी कैसी कैसी नादानी,
होके मन बावला फिरे कैसे।

रात अपनी ना ही दिन अपने,
मन में खिलते हजारों में सपने,
उसका ही नाम बस लगे जपने,
अजनबी खुद से हो लिये जैसे।


वही अपना खुदा, वही भगवान,
उसके मुस्कान पे जहाँ कुर्बान,
उसकी बातें ही गीता और कुरान
धरम और करम सब पिया जैसे।

क्या कहें प्यार कैसे होता है,
बस इक बुखार जैसे होता है
ये कभी ना कभी उतरता है,
तब सब बचपना सा लगता है
मोड से आगे बढ जाना जैसे।

चित्र गूगल से साभार।