कितना कुछ खोना पडता है,
कुछ पाने के लिये।
और देना पडता है श्रमदान,
पाया बनाये रखने के लिये।
हम अक्सर गफलत कर जाते हैं,
पाये पर अपना मालिकाना हक समझने की।
नही जानते कि हमने किराये पर लिया है इसे,
हमारे इस देह की तरह।
इसको जतन करना है तो करना पडेगा श्रम,
ये तो हमारा ही है कहाँ जायेगा, नही पालना है ये भ्रम।
जहाँ किराया भरने से चूके, कि पाया खो जाता है,
देह को उपेक्षित किया कि घुन लग जाता है।
मन दुर्लक्षित हुआ कि मैला हो जाता है।
देह को श्रम साध्य करना,
मन को रखना स्वच्छ, सरल निर्मल शिशुसा
फिर शायद पाया रहेगा पाया, लंबे समय तक।
पर चिरंतन तो कुछ भी नही।