देह के
अपने इस प्रांगण में
कितनी
कीं अठखेली पिया रे
मधुघट
भर भर के छलकाये
औ रतनार
हुई अखियाँ रे ।
खन खन
चूडी रही बाजती
छम छम
छम छम पायलिया रे
हाथों
मेहेंदी पांव महावर
काजल से
काली अंखियां रे
वसन रेशमी,
रेशम तन पर
केश पाश
में बांध हिया रे ।
कितने
सौरभ सरस लुटाये
तब भी
खिली रही बगिया रे ।
पर अब
गात शिथिल हुई जावत
मधुघट
रीते जात पिया रे ।
पायल फूल
कंगन नही भावत
ना मेहेंदी
ना काजलिया रे ।
पूजा गृह
में नन्हे कान्हा
मन में
बस सुमिरन बंसिया रे ।
तुलसी
का एक छोटा बिरवा
एहि अब
रहत मोर बगिया रे
सेवा पहले
की याद करि के
रोष छोड
प्रिय करो दया रे ।
दिन तो
डूब रहा जीवन का
सांझ ढले,
फिर रात पिया रे ।
नही इस
पार जिया अब लागत
नैन लगे
उस पार पिया रे ।
यह
कविता कविवर्य (स्व.) भास्कर रामचंद्र तांबे जी की 'रिकामें मधुघट' ( खाली मधुघट) की संकल्पना पर आधारित है ।
आशा
है आपको पसंद आयेगी ।
यहां
से अब परसो दिल्ली जाना है , पहले लंबा सफर, फिर घर की साफ सफाई । वापस ढर्रे पर
लौटने तक शायद
ब्लॉग पर समय ना दे पाऊँ । आपका
स्नेह वापसी पर मिलता रहेगा इसी आशा के साथ ।