मंगलवार, 26 मई 2015

अपराध बोध

देखें हैं मैने अपनों के कष्ट,
देखा है उन्हें पल पल घुलते
तिल तिल मरते,
पूर्ण अनिच्छा से छोडते हुए ये संसार।
जब कि बाकी था कितना कुछ पाना, उन्हें, अपने हिस्से का।
कितना सुख, कितनी पूरी होती आशाएं, आकांक्षाएँ
जो अधूरी छोड,जाना पडा उन्हें।
नही पूछी किसीने उनकी मर्जी
बस सज़ा सुनादी, उन्हें भी और उनके अपनों को भी।
और फिर वह दवाओं का अंबार, जिसमें से एक भी कारगर नही हो सकी,
वह बिस्तर, वह अपनों के मायूस चेहरे। भरे मन से इर्द गिर्द घूमना।
और उनका दिन गिनना, बस दिन गिनना।
हर दिन कम होती शरीर की ताकत,
हर दिन गहरे धंसती आंखें, गालों के गहराते खड्डे
हाथों पावों की हड्डियां, पतली होती जाती सिकुडती त्वचा,
और मेरा मुझमें से रोज कुछ टूटते जाना।
स्वयं के जीवित होने का अपराध बोध गहराते जाना।

रविवार, 17 मई 2015

पचास सालों का साथ



पचास सालों का साथ
पचास सालों की दोस्ती
पचास सालों के विवाद
पचास सालों के संवाद





पचास सालों का रहना
पचास सालों का सहना
पचास सालों का संसार
के सागर में बहना

पचास सालों का हंसना
पचास सालों का रोना
पचास सालों का रूठना
पचास सालों का मनाना

पचास सालों के सुख
पचास सालों के दुःख
पचास सालों के वार
पचास सालों का प्यार

पचास सालों की हार
पचास सालों की जीत
पचास सालों से जो निभाई
वह रिवाज़ और रीत

पचास सालों की विफलता
पचास सालों का साफल्य
पचास सालों बाद अब
अब कुम्हलाता जाज्वल्य

यही है आस  
लें न जबतक अंतिम सांस
सालों का अपना ये साथ
चले यूं ही साथ ही साथ।


गत 12 मई को हमने अपने विवाह की पचास वी वर्षगांठ मनाई। उस वक्त मनमें उठे कुछ भाव थे ये।

रविवार, 3 मई 2015

पांव अब भी इसी जमीन पे हैं।

जो दे अब भी खुशी, पुरानी जेब का वो सौ का नोट
तो जान लो कि पांव अब भी इसी जमीन पे हैं।

बचपन के दोस्तों से मिलो अब भी जो गले लग कर,
तो जान लो कि पांव अब भी इसी जमीन पे हैं।

साबुन को इस्तेमाल करो घिस के पतला होने तक,
तो जान लो कि पाँव अब भी इसी जमीन पे हैं।

गली में खेलते बच्चों की लपक लो तुम जो गेंद कभी,
तो जान लो कि पाँव अब भी इसी जमीन पे हैं।

माँ के हाथ की रोटी जो लगे पिझ्झा से प्यारी,
तो जान लो कि पाँव अब भी इसी जमीन पे हैं।

बच्चों को कहानी सुनालो जो किसी रात को तुम,
तो जान लो कि पाँव अब भी इसी जमीन पे हैं।

किसी बुजुर्ग को देखते ही रोक लो जो कार,
तो जान लो कि पाँव अब भी इसी जमीन पे हैं।

मेहमाँ के आते ही खिल जाये अब भी जो बाँछें
तो जान लो कि पाँव अब भी इसी जमीन पे हैं।

नयी जिंदगी में जो याद आयें पुराने हमदम
तो जान लो कि पाँव अब भी इसी जमीन पे हैं।



चित्र गूगल से साभार
इस कविता का आधार वॉटसएप पर पोस्टेड एक मराठी गद्य कविता है।