रविवार, 19 नवंबर 2017

चलते हीजानाहै।

कितना तो चल चुकी मैं
कितना अभी चलना है।
थक गये हैं पाँव लेकिन
राह बीच न रुकना है।

कहाँ खत्म रास्ता है
कोन सी मंजिल है मेरी
राह चाहे हो कँटीली
या हो फिर चाहे पथरीली
चलते ही जाना है मुझको
कँही ना ठहरना है

खत्म हो गये वे रस्ते
फूल पत्ती घाँस वाले
अब तो राह मरुथली है
पाँव में पड गये हैं छाले।
चलते ही जाना है लेकिन
राह में ना रुकना है।

ठहराव

भँवर में फँसी थी नाव
नाव में फँसा था पाँव
अनुकूल ना थी हवा
माकूल ना थी दवा
गर्त में था गहरा खिंचाव।

घबराहट चेहरेपर
धडधडाहट थी दिल में
कैसे निकले मुश्किल से
छटपटाहट थी मन में
दूर था किनारे का गाँव।


समय चल रहा था खराब
मुश्किलों का न कोई हिसाब
कोई न तरकीब ऐसी
कूद के पार हों ऐसी
वक्त का हो रहा रिसाव।

मुश्किल से सही
ये भी निकला समय
धीरे धीरे सही कट ही गया
वह समय
चलने लगी आखिर नाँव।

ठंडी हवा कुछ सुकूँ दे गई
साँस संयत हुई
कुछ तो राहत हुई
कुछ तो आया ठहराव।



शनिवार, 14 अक्तूबर 2017

छह महीनों के लम्बे अंतराल के बाद मैं वापस पढ़ना लिखना शुरु कर रही हूँ। पहले आप सब को पढ़ूँगी फिर कुछ लिखूँगी भी। आशा है आप सबका सहयोग मिलता रहेगा।


शनिवार, 5 अगस्त 2017

दर्द ओ ग़म तो




दर्दों ग़म तो लाखों हैं इस ज़माने में,
ख़ुशी को लेकिन अक्सर ढूँढना ही पड़ता है ।

रंजिशों की तो  यहाँ सदा बिछी है बिसात
मात देने को सिकंदर ही बनना पड़ता है।

टी वी अख़बार तो छापते हैं बस बुरी ख़बरें
अच्छी ख़बरों को तो कोने में घुसना पड़ता है।

भूखे चेहेरों पे लाने के लिये छोटी हँसी
अपनी रोटी में से थोड़ा खिलाना पड़ता है।

अपनी कमाई में से कुछ तो थोड़ा सा
दूसरों की ख़ातिर भी रखना पड़ता है।

ग़मों में टूटने से बचने के लिये
दुख में भी मुस्कुराना पड़ता है।

हम हँसे तो लोग भी मुस्कुरा देंगे
रोशनी  हो तो अंधेरों को हटना पड़ता है।

ज़िंदगी ज़िंदादिली का नाम सनम
ऐसे तो फिर जीना सभी को पड़ता है ।


शुक्रवार, 5 मई 2017

कितने जतन किये

कितने जतन किये
तुमसे मिलने के

भिजवायें अनगिनत संदेसे
चिठिया पत्तर भेज के देखे
हवा पखेरू के संग अपने,
दुखडे कथन किये
कितने जतन किये।

सखा तुम्हारे, सखियाँ मेरी
दुखसे मोर जो थीं दुखियारी
जा जा कर के पास तिहारे
कष्ट निवेदन किये
कितने जतन किये।

तुम न पसीजे,तुम ना आये
क्यूं इतने कठोर हो पाये
क्या ऐसी मोसे भूल हो गई
जो ये मरन जिये
कितने जतन किये।

अब आजाओ न और रुलाओ
एक बार दरस दे जाओ
फिर चाहे वापिस ना आओ
कोई रहे या कि मिये
कितने जतन किये






बुधवार, 19 अप्रैल 2017

बादलों के उस पार

बादलों के उस पार कोई तो जहाँ होगा,
जहाँ हमारा भी इंतजार हो रहा होगा।

खूबसूरत अलग से झरने होंगे,
रंगों का कोई अनोखा सा समाँ होगा।

हमारे संगी साथी जो यहाँ बिछुड गये, होंगे
धुंआधार बारिशों से धुला आसमाँ होगा।

रुपये पैसे की जरूरत ही नही होगी,
खाना पीना भी तो मुफ्त ही वहाँ होगा

या फिर भूख प्यास ही नही होगी,
तृप्ति का अहसास ही सदा होगा।

हमारी सोच भी तो इस जहाँ की है,
ना जाने कौनसा नया मंजर वहाँ होगा।

जो भी होगा बहुत खूबसूरत होगा
ये यकीन हमारा भी सही होगा।


बुधवार, 12 अप्रैल 2017

कितना कुछ

तारोंभरा आसमान निहारते हुए
कितना कुछ याद आता है।
परिक्षा के बाद गर्मी की छुट्टियों में
रात छत पर सफेद चादरों वाले बिस्तर पर
बैठ कर बतियाना,
परिक्षा खत्म होने की खुशी और साथ साथ
नतीजे की प्रतीक्षा और तनाव
वह  एकदूसरे को ढाढस बंधाना,
हाथों को हाथ में लेकर।
अचानक एक सिहरन, एक बिजली सी महसूस होना
मेरा हाथ छुडाकर नीचे भाग जाना
क्या यही प्यार था,
आज इतने सालों बाद यह याद कर के
हंसी भी आती है और एक बेचैनी भी होती है दिल में
क्या वह प्यार  था  अगर था तो थोडी सी हिम्मत दिखाने से परवान चढता?


बुधवार, 1 फ़रवरी 2017

कब हमने सोचा था

कब हमने सोचा था कि ये पैर डगमगायेंगे,
बेटे हमारे लिये फिर लाठी ले के आयेंगे।

खाना बनाने से भी हम इतने थक जायेंगे
सीढी बिना रेलिंग की कैसे हम उतर पायेंगे।

लेकिन ये हुआ है तो अब मान भी हम जायेंगे
जो जो सहारा लेना है लेकर उसे निभायेंगे।

मन माफिक खाना पीना भी भूल जायेंगे,
सरे शाम ही अब खाने से निपट जायेंगे।

हलका फुलका और दाल से निभायेंगे,
एक ही काफी है अब दो कहाँ खा पायेंगे।

घूमने जाना तो फिर कोई साथ ले के जायेंगे
अकेले से तो जानें की हिम्मत क्या बटोर पायेंगे।