शनिवार, 27 अप्रैल 2013

ये कैसा समाज ?







ये कैसा समाज ?

क्या हम दरिंदों का और कायरों का समाज बना रहे हैं
हम में से कुछ तो दानव हो ही गये हैं इसमें कोई संदेह नही पर बचे हुए क्यूं कायरता को अपना रहे हैं ।  क्या हम तब तक मुंह फेरते रहेंगे जब तक हमारी बहू बेटी पर ये ना बीते । सोचिये तब कौन आयेगा हमारी मदद करने । देख ही रहे हैं कि हमारे बच्चे भी अब सुरक्षित नही हैं । जो हमारे तथाकथित सहायक हैं, रक्षण कर्ता हैं । वही भक्षकों के सहायक बन रहे हैं या फिर खुद ही भक्षक
जो नेता मंत्री हैं वही हमारा शोषण कर रहे है । समय आ गया है विद्रोह का, विरोध का, लडाई का, अपनी बात दो टूक कहने का वरना यह समाज इन्सानों का नही दरिंदों और कायरों का बन जायेगा ।

देखते हैं कि हम क्या कर सकते हैं ऐसे में ।

-बसों में, मेट्रो में, रेल्वे में छे़ड छाड देखते ही लडकी के साथ सब मिल कर विरोधी स्वर बुलंद करें ।
अगला मारपीट पर उतर आये तो उसे समुचित उत्तर दें । 

-रोता बच्चा किसी किशोर या वयस्क के साथ देखें तो समुचित पूछताछ करें, कुछ
गडबड लगे तो पुलिस में रिपोर्ट करें ।

चुनाव के समय वोट मांगने आये नेताओं से सवाल करें कि क्या  उनका नाम किसी
भ्रष्ट आचरण के केस से जुडा है । जनता व खास कर स्त्रियों की सुरक्षा के लिये वे क्या कदम उठा रहे हैं ।

-क्या उनके राज में महिला सुधार गृहों का व्यवस्थापन साफ सुथरा है, या वहां उनका शोषण हो रहा है । क्या उनकी पार्टी भ्रष्ट नेताओं को टिकट दे रही है ।   

-बाल सुधार गृहों में बच्चों के शिक्षा तथा विकास के लिये क्या प्रयत्न किये जा रहे हैं । क्या वहां के अधिकारियों के आचरण पर नजर रखी जा रही है, क्या उनको समय समय पर बदला जाता है ।

- अपने घरों में काम करने वाले स्त्री पुरुषों को समझायें कि कंबल, साडी या १०० रु. के नोट के बदले वोट ना दें ।
-पुलिस के मदद ना करने पर अखबार के एडिटर को पत्र लिखें उसकी प्रति गृहमंत्रालय को भेजें । यदि आप ब्लॉगर हैं, अपने ब्ल़ॉग पर भी इस बारे में लिखें ।

मीडीया को जिम्मेवार भी हम बना सकते हैं, उनसे पूछ सकते हैं कि क्यूं वह किसी भी केस में सिर्फ कुछ दिन ढोल पीट कर चुप हो जाते हैं। क्यूं उसको आखिर तक नही ले जाते । उनमें, उनकी कलम में, ताकत हैं कि वे सरकारों को सही कदम उठाने को मजबूर करें । फिर क्यूं वे उसका सही इस्तेमाल नही करते ।

क्या हुआ निर्भया के केस का, उसके बाद भी लगातार इतने बलात्कार क्यूं हो रहे हैं ।
पुलिस अपनी जिम्मेवारी क्यूं नही निभाती ।

अपने गली मुहल्ले कॉलोनी में जागरूकता समूह बनाये

य़दि हम सब मिल कर प्रयत्न करें तो संभव है यह भी करना ।

गुरुवार, 11 अप्रैल 2013

क्षणिकाएं

क्षणिकाएं

उगता सा कुछ दिल के अंदर
ये मेरी चाह है
या तुम्हारी चाहत ।

आंखों में नींद है ना चैन
किरचें चुभती हैं
आंसुओं की ।

धूप के छोटे छोटे टुकडे
बिस्तर पर फैले,
यादों के साये ।

चाय के साथ कमरे में आती तुम,
चेहरे पे धूप छांव
आती जाती ।


कुछ ना कहो, छलक जायेंगी
यूं ही तैरती सी लगती हैं
ये पनीली आंखें ।

.................................................................


देह झुलसाती कडकती धूप
याद आता है
पापा का गुस्सा ।


बरसता मेह, भीगती धरती
पानी के परनाले
मां की आंखें ।

पुराने कंबल के भीतर लगी
पुरानी चादर, गर्माहट
माँ के आंचल सी ।


गर्म मौसम में ठंडी हवा
खस में भीगी
दीदी का प्यार


आईस कैंडी सा सुकून देता
ठंडक पहुंचाता
भैया का दुलार


संध्या रंग गालों पर बिखराती
मन को गुदगुदाती
पिया मनुहार

मंगलवार, 2 अप्रैल 2013

आदमी खोया कहां है ?

इक आदमी को ढूंढते हैं
ये आदमी खोया कहां है

ढूंढा उसे हर रास्ते पर
हर गांव में और हर नगर
दौड दौड ठहर ठहर
आया कहीं न नज़र मगर
सोचते ही रहे हम फिर
आदमी खोया कहां है ।

ढूंढा उसे फिर झोपडों में
चिरकुटों में चीथडों में
फ्लेटों में अट्टालिका में
बंगलों मे, बाडियों में
था ही नही, मिलता कहां
वो आदमी खोया कहां है ।

हाटों में और बाज़ारों में
मॉलों में और होटलों में
ढाबों में और रेस्तरॉं में
गिलासों में बोतलों में
मिला नही फिर मिलता कैसे
वो आदमी खोया जहां है ।

मुफलिसों में, अमीरों मे,
जाहिलों, विद्वज्जनों मे
दुर्जनों में, सज्जनों मे
देश के सारे जनों में
ढूंढते फिरते रहे पर
आदमी पाया कहां है ।

सुनामी में, तूफानों में,
बाढ में भी अकालों में
जिंदगी में और कालों में
उत्सवों मे, हादसों में,
काम कर के थक गया जो
नाम से कतरा गया जो
वो आदमी सोया यहां है
आदमी खोया कहां है ।