सोमवार, 29 अक्तूबर 2007
....विश्वास
न तुम मेरे झोंपडे को राख करो,
न मैं तुम्हारे महल बे-चिराग करूं ।
न तुम मेरे मुंह से निवाला छीनो,
न मैं तेरे बच्चों को रहन रख लूं ।
न तुम मेरे बहनों की चूडियाँ तोडो
न मैं तुम्हारे घर पे आसमाँ तोडूं ।
न तुम हम जैसों पे कहर बरपाओ
न मैं तुम्हारे सुख चैन को हराम करूं ।
न तुम सुनों मौका-परस्त की बातें
न मैं ही उसके इरादों को अंजाम करूं ।
आ गया वक्त समझ लें हम इनकी चालों को
तुम मेरा ख्याल करो, मैं तुम्हारा ख्याल करूं ।
न तुम दो साथ सियासत करने वालों का
न मैं इनकी बातों का एतबार करूं ।
तुम जीओगे और हम को भी जीने दोगे
क्या मैं अब इस बात का विश्वास करूं ।
आज का विचार
कोई कमजोर इन्सान किसी को माफ नही कर सकता
क्यूंकि माफ करना तो एक ताकतवर इन्सान का गुण है ।
स्वास्थ्य सुझाव
आधे कप लौकी के रस में आधा चम्मच अद्रक का रस मिलाकर
इसे 6 ब्राम्ही के पत्ते और बारा तुलसी के पत्तों के साथ पीने से
भूलने की बीमारी (अलझाइमर्स) में लाभ पहुँचता है ।
शुक्रवार, 26 अक्तूबर 2007
जीने की कला
हमारी आधी से अधिक जिंदगी हम या तो यह सोचते हुए बिता देते हैं, कि बीता हुआ समय कितना अच्छा था या फिर इस चिंता में कि भविष्य कैसा होगा । और जो हमारा आज है उसके लिये हम कुछ नही करते इतना भी नही कि ये आज कैसे आनंद से बीते । अगर हम हर पल में जीना सीख लें तो समझ लेंगे कि हमें जीने की कला आ गई । जैसे कि किसी ने कहा है, Past is history, future is mystery, but this moment is a gift, that is why it is called present. तो एक एक कदम चलें और हर कदम मस्ती में चलें । झूमते गाते चलें । हर पल का आनंद उठाते चलें । आनंद के लिये किसी बडी घटना का इंतजार करने की जरूरत नही है । प्रकृती स्वयं इतनी सुंदर है कि सिर्फ नज़र उठाकर देखने भर की जरूरत है और आनंद स्वयं हमें ढूंढता हुआ चला आयेगा । जो सूर्यास्त और सूर्योदय देखने हम माउंट आबू या दार्जिलिंग जाते हैं वही हमे अपने कमरे की खिडकी से भी उतना ही सुंदर दिखाई दे सकता है बल्कि देता है बस आपको उसे उस पल आँख उठाकर देखना भर है ।
यह दुनिया खूबसूरत चीजों से भरी पडी है हमें सिर्फ नजर भर उठाना है । चीजों से मेरा मतलब बंगले, गाडियाँ तरह तरह के गेजेट्स से नही है । यह महज़ एक कोयल की कूक हो सकती है या बारिश की पहली फुआर, मिट्टी की सौंधी खुशबू या समंदर के किनारे पाँव के नीचे रेत को अनुभव करना या फिर रेल का सफर जिसमें आप स्टेशन पर उतर कर गरमागरम पकौडे खा सकें या बुक स्टॉल पर अपनी मन पसंद मेगझीन या किताब खरीद सकें । या ब्ल़ॉग पर अपने लिखे पर आई कमेंटस् पढ सकें (अब इसके लिये तो आपको कंप्यूटर नामका गेजेट जरूर लगेगा ) ।
हमारी रोजमर्रा की जिंदगी इतनी ज्यादा तनाव पूर्ण और भाग दौड भरी हो गई है कि अक्सर हम अपने आप को बदहवास पाते हैं । घडी के साथ हमारी रेस सुबह से शाम तक चलती ही रहती है ।अगर हम हर पल कुछ करते ना रहें तो हम खुद को दोषी समझने लगते हैं । लाल बत्ती पर होने वाला तमाशा मैने तो बहुत बार भुगता है, और आप सब भी इससे अच्छे से वाकिफ होंगे ।
लाल बत्ती के हरा होने तक भी किसी को चैन नही है । हॉर्न की कर्ण भेदी आवाजें , गडियों का एक दूसरे से आगे घुसना, और तो और बसें भी पीछे नहीं हैं, तमाम चिल्लपों मची हुई । परिणाम, शांती से जिस ट्राफिक लाइट को पार करने में पाँच से दस मिनट लगते वहीं अधैर्य के कारण 20 मिनट लग जाते हैं । बस या ट्रेन में चढते हुए भी हम इसी अधैर्य का परिचय देते हैं । किसी भी लाइन में लगकर देख लीजीये चाहे वह सिनेमा के टिकिट की हो या मंदिर में भगवान के दर्शन की । हम अपने इसी बेचैनी का प्रदशर्न करते हैं । भाई ( या बहन भी, कोई मुझे अपनी जाति का पक्षपाती न समझे) इतनी जल्दी किस बात की है, ठंड रख ।
छोटी छोटी बातें जो किसी तरह हमारे बस में नही होतीं हमें परेशान कर डालती हैं । जैसै ट्रेन का लेट होना या बीच रास्ते में बस का खराब हो जाना, मैने तो यह बहुत बार भुगता है । भुगता शब्द से ही आप समझ गये होंगे कि उस वक्त भुनभुनाने में मै किसी से पीछे नही थी । पर इस से होता क्या था तनाव बढता था, थकान हो जाती थी, और घर पहुँचने पर घर वालों की खैर न होती थी क्यूं कि सारी भडा़स तो उन्ही पर निकलती थी न । आप कहेंगे खुद तो वही किया ओर अब हमें सिखाने चली हैं । बात तो ठीक है आपकी पर सुबह का भूला शाम को घर आ जाये तो उसे भूला नही कहते , नही कहते न !
इस संदर्भ में मुझे याद आ रहे हैं डॉक्टर मोर्स और उनकी बेटी एलिझाबेथ । वे हमारे यहाँ भारत घूमने आये थे । जिस दिन वे लोग आगरा घूमने गये थे उस दिन आगरा में जातीय दंगे हो गये । हम घर पर परेशान कि कैसे आयेंगे ये लोग अब वापस, मेरे पती ने उनके साथ जाने के लिये प्रस्ताव भी रखा था लेकिन उन्होने यह कह कर मना कर दिया था कि उन्हें protected environment में मजा नही आयेगा । दंगों के इलाके से तो एक स्कूटर वाला उन्हें बचा कर ले आया था पर उनकी ट्रेन जो सुबह पांच बजे चलने वाली थी
दो घंटे लेट हो गई थी । इसके बावजूद कि एक दिन पहले ही वहाँ दंगे हुए थे ये बाप बेटी खुश कि चलो थोडा टाइम मिल गया
तो Sun rise के स्नेप्स ले लेते हैं, ऑटो में बैठे अपना मन पसंद spot ढूंडा और खूब तसवीरें लीं । और वापस आकर खुशी खुशी ट्रेन में बैठे, घर पहुंचे और खूब हँस हँस कर सारी बातें सुनाईं । मै तो हैरान कि ऐसे भी लोग होते हैं !
और हम सब चिंता बडी करते हैं । जिन बातों से हम फिक्रमंद होते हैं उनमें से आधी से ज्यादा तो बातें कभी होती ही नही हैं । इस कारण हम अपना सुख चैन जरूर खोते हैं । इस फिक्र की जगह हम इन चिंता के कारणों को क्रम से लगालें और उनका हल ढूँढे तो हमारा दिमाग भी बिझी रहेगा और कोई हल भी निकलेगा । और एक बडे काम की चीज़ है विश्वास अपने ऊपर और लोगों की अच्छाई के ऊपर । बहुतसे हमारे काम तो उस विश्वास के बल बूते पर ही पार लग जाते हैं । तो जो करना ज़रूरी है वह करो और भूल जाओ । मेक्सिकन लोग अपने घर में एक कपडे की गुडिया रखते हैं जिसे वे वरी डॉल बोलते हैं, अपनी सारी चिंताएं वे लोग इस वरी डॉल को दे कर चिंता मुक्त हो जाते हैं । आयडिया अच्छा है न !
अगर इनसान से सिर्फ एक चीज मांगने को बोला जाय तो वह क्या मांगेगा ! शायद खुशी । तो खुश रहिये और खुश रखिये ।
बुधवार, 24 अक्तूबर 2007
.....रात और सुबह....
लेकर अनूठी बारात, चली तारों भरी रात
चांदसा दूल्हा, साँवली दुलहन
मंद मंद सुगंधी पवन
नया जोडा, दूधिया चांदनी,
शर्मीली दुलहन, रात मन मोहनी
साथ साथ ले हाथों में हाथ
दूल्हा दुल्हन बिछायें बिसात
सुबह तक चले फिर खेल
जबतक न बैठे हार जीत का मेल
मेरी हुई जीत या तुम हारे
दोनो सोचते रहे बिचारे
थक कर सो गई रात
चांद भी लुढका देने साथ
सुबह जब आई
कर दी सारी सफाई
आजका विचार
आप कभी भी उतने ज्यादा दुखी या खुश नही होते जितना आप सोचते हैं।
स्वास्थ्य सुझाव
तुलसी के काढे से तनाव दूर होता है ।
सोमवार, 22 अक्तूबर 2007
आगे चुकता करें
हाल ही में मैने एक मूवी देखी, नाम था Pay it Forward , बहुत ही पसंद आई । आप में से भी बहुत लोगों ने देखी हो शायद । कहानी मै यहाँ नही बता रही । उसकी जो थीम थी वह कुछ इस प्रकार थी । क्या ये दुनिया आपको अच्छी लगती है , अगर नही तो आप इसको अच्छी बनाने लिये क्या कर सकते हैं । और इसको कार्यान्वित करने के लिये आपका प्लान क्या है ? स्कूल की ७वी कक्षा में एक छोटासा लडका एक प्लान कक्षा के सामने रखता है । इसके अनुसार वह तीन लोगों की मदद करेगा ताकि उनकी जिंदगी कुछ आसान हो । और बदले में वे तीनों लोग ओर तीन तीन लोगों की मदद करेंगे जिससे उनकी जिंदगी की समस्याएं सुलझे और यह क्रम इसी तरह चलता रहा तो दुनिया अच्छी हो जायेगी ।
बचपन में हम सबको बताया गया था कि जो आपकी मदद कर रहा है उसका ऋण चुकाने का मौका आपको मिल जाये तो आप किस्मत वाले हैं पर अक्सर ऐसा होता नही है । इसलिये आप को जब भी मौका मिले किसी असहाय की मदद अवश्य करें । पर ये तो और भी अच्छा है कि यह कडी शुरू ही आपसे हो । यह मदद कुछ भी हो सकती है मसलन, भूखे को खाना खिलाना, किसी को गाडी या स्कूटर पे लिफ्ट देना, किसी को पिटनेसे बचाना, किसी की स्कूल की फीस भरना, घायल को अस्पताल पहुँचाना आदि । और इसकी बारंबारता (Frequency) आप पर निर्भर है । रोज़, हफ्ते में, या फिर महीने में या सालमें । लेकिन जो भी आप तय करें उसे निभायें । मदद छोटी भी हो सकती है और बडी भी सब आपकी क्षमता पर निर्भर है ।
बहुत बार ऐसा भी हो सकता है कि आप कामयाब न हों जिसकी मदद आप करना चाहते हैं वह आपकी मदद ना ले या आप ठीक से कर ना पायें या आप करें पर कामयाब न हों, पर सही कदम उठाना जरूरी है और इसे उठाने से आप के अंदर एक संतोष भर उठेगा । और जरूरतमंद तो कई हैं । एक ढूंढो तो हजा़र मिलते हैं । हालाँकि जरूरी है कि इसकी जरूरत असली हो और यह आपके,“ आगे चुकता करने” के प्लान को आगे बढाये । और तीन बार कामयाबी हासिल करना बहुत कठिन नही होगा । एखाद बार हो सकता है कि जिसकी आपने मदद की वह धोखेबाज़ निकले पर वह आपकी नही उसकी परेशानी है और कोशिश करने में और करते रहने में क्या हर्ज है ?
और हम ये आसानी से कर सकते हैं । इसके लिये चाहिये होगा सिर्फ दृढ निश्चय और आत्मविश्वास ।
शुक्रवार, 19 अक्तूबर 2007
गोविंद दादा
हमारे एक फुफेरे भाई हुआ करते थे गोविंद दादा । उमर में मुझसे कोई दस बारह साल बडे़ रहे होंगे। लंबे, अच्छे डील डौल
वाले दादा जब भी हमारे यहाँ आते हम बच्चों की तो बाछें खिल जातीं । कहानी सुनाने में गोविंद दादा का कोई सानी नही था ।
कहानी सुनाते हुए वो कहानी में ऐसे रंग जाते कि कहानी के सारे पात्र जीवंत होकर हमारे साथ विचरने लगते ।
उनके आते ही हम सब उनके पीछे पड जाते कि गोविंद दादा कहानी सुनाइये । और वो हमें डपट कर कहते अभी नही
रात में । और आनन फानन में पूरे बाडे में यह बात फैल जाती कि गोविंद दादा आये हैं और रात में कहानी सुनाने वाले हैं ।
रात का खाना निबटाकर हम सब उन्हें घेर कर बैठ जाते । और शुरू हो जाती कहानी सात संकट गोविंद दादा की जबानी ।
इस कहानी में राज कुमार को सात समंदर पार से कोई अक्षय कमल लाकर राजकुमारी को सुंघाना होता था । और चल पडता
अपना राजकुमार अक्षय कमल की तलाश में ।
पहले तो राजकुमार महल से निकला और चलता ही चला गया जा…ते , जा…ते , जा..ते , जाते एक लं........................बे मैदान से होकर वह आगे चला और ......... और गोविंद दादा चुप । फिर क्या हुआ दादा बताईये ना, हमारा अनुनय । और....... एक जंगल में प्रवेश कर गया वह, शाम का वक्त, सन्नाटा, हवा की साँय साँय, झींगुरों की किर्र किर्र, बीच बीच में उल्लुओं की आवाज घू ...घू .....घू ......घू घू पर हमारा राजकुमार निडर चलता ही चला गया और अचानक सुनाई दी शेर की दहाड़ हा ................आ........................हा और अगले ही क्षण एक ही छलांग में शेर राजकुमार के ऊपर । राजकुमार के साथ साथ हमारी भी ऊपर की सांस ऊपर और नीचे की नीचे । शेर के पंजे राजकुमार की छाती पर, मुँह खुल गया और दांत चमके जैसे बिजली कौंध गई हो। हम सांस रोक कर प्रतीक्षा में कि अब गया राजकुमार । पलक झपकते ही राजकुमार ने अपना एक हाथ शेर के जबडे में फँसा दिया और दूसरे हाथ से एक बडी सी लकडी शेर के गले में डाल दी । अब शेर सकते में आ गया न उगलते बने न निगलते । मौका पाकर राजकुमार ने हाथ निकाल लिया और एक बडे से पत्थर से शेर का खात्मा कर दिया । राजकुमार के साथ साथ हमारी भी जान में जान आ जाती ।
इसी तरह एक के बाद एक संकट आते और राजकुमार उनको पार करता हुआ आगे बढता जाता । और फिर आता आखरी संकट ।
राक्षस को हरा कर रात को राज कुमार गहरी नींद सोया । अब उसे समंदर पार करके तालाब तक पहुँच कर अक्षय कमल लाना था । वह समंदरके किनारे पहुँचा, वहाँ एक नाव खडी थी । राजकुमार नाव में बैठ कर चल पडा । वह पूरा जोर लगा कर नाव को खेने लगा । समंदर की दीवार जितनी ऊँची भयंकर लहरें उसकी नाव के ऊपर से गुजरती पर वह नाव को सावधानी से बचाकर आगे बढता । इन लहरों से बचता तो तूफान उसे घेरते उसकी नैया यूँ हिचकोले खाती जैसे अब उलटी तब उलटी लेकिन कुछ उसका साहस और कुछ ईश्वर की मदद से वह आगे बढता ही जाता। इस समंदर से जहां उसे नदी के अंदर प्रवेश करना था ठीक उसके पहले एक और भयानक संकट उसकी राह देख रहा था । इस समंदर में थे दो पहाड़ जो बराबर एक दूसरे के पास आते और कुछ पल ठहर कर दूर हो जाते । यह क्रम निरंतर चलता ही रहता । अब कैसे जाये राजकुमार की नैया इन पहाडों के बीच से । उसके चूर चूर होने का पूरा अंदेशा । राजकुमार मन ही मन ईश्वर को याद करने लगा । तभी उसने सोचा कि यदि वह कितने देर में पहाड दूर जाकर वापस आते हैं यह पता लगाले तो वह अपनी नाव उतनी ही या उससे कम देर में पहाडों के बीच से गुजा़र कर उस पार जा सकता है । और राजकुमार अपनी नैया को पहाडों के पास ले आया और जैसे ही पहाड़ पास आये वह चौकन्ना हो गया । पहाडों के दूर होना शुरू होते ही उसने अपनी सांसें गिनना आरंभ किया और तब तक गिनता रहा जबतक पहाड फिर से पास पास आने लगे । उसे अपनी नाव पचास की गिनती से पहले पहाडों के बीच में से निकाल कर ले जानी थी । अब राजकुमार और आगे बढ आया और जैसे ही पहाड़ दूर होने लगे वह अपनी नौका बीचोंबीच ले आया और जैसे जैसे पहाड दूर हों वैसे वैसे वह नौका आगे बढाने लगा और आधी से ज्यादा नौका उस तरफ आ गई । अब पहाड़ दूर जाकर एक क्षण को रुक गये और उन्होंने धीरे धीरे वापस आना शुरू किया । राजकुमार की नाव एक चौथाई अभी भी इस पार । राजकुमार पूरा जोर लगा कर नाव को खेने लगा इधर पहाड़ भी धीरे धीरे पास आते जा रहे थे, नाव को थोडा हिस्सा पार हुआ पर अभी भी आखरी का छोर इसी तरफ था । राजकुमार ने जी जान लगा दी नाव को पार करने में लेकिन पहाड़ अब एकदम करीब थे, लगा कि नही हो सकेगी नैया पार लेकिन एक जोरदार चप्पू का झटका और नैया पार और उसी क्षण दोनो पहाड़ एकदम पास । राज कुमार के चेहरे पर मुस्कान और हम एक गहरी सांस छोडकर शांत । फिर तो सब कुछ आसानी से हो जाता । राजकुमार समंदर से नदी में प्रवेश करता, गाँव में जाता तालाब से अक्षय कमल लेकर वापस आता । अक्षय कमल सूंघते ही राजकुमारी जाग जाती और राजकुमार से विवाह करती और वे दोनो सुख से रहने लगते ।
वाले दादा जब भी हमारे यहाँ आते हम बच्चों की तो बाछें खिल जातीं । कहानी सुनाने में गोविंद दादा का कोई सानी नही था ।
कहानी सुनाते हुए वो कहानी में ऐसे रंग जाते कि कहानी के सारे पात्र जीवंत होकर हमारे साथ विचरने लगते ।
उनके आते ही हम सब उनके पीछे पड जाते कि गोविंद दादा कहानी सुनाइये । और वो हमें डपट कर कहते अभी नही
रात में । और आनन फानन में पूरे बाडे में यह बात फैल जाती कि गोविंद दादा आये हैं और रात में कहानी सुनाने वाले हैं ।
रात का खाना निबटाकर हम सब उन्हें घेर कर बैठ जाते । और शुरू हो जाती कहानी सात संकट गोविंद दादा की जबानी ।
इस कहानी में राज कुमार को सात समंदर पार से कोई अक्षय कमल लाकर राजकुमारी को सुंघाना होता था । और चल पडता
अपना राजकुमार अक्षय कमल की तलाश में ।
पहले तो राजकुमार महल से निकला और चलता ही चला गया जा…ते , जा…ते , जा..ते , जाते एक लं........................बे मैदान से होकर वह आगे चला और ......... और गोविंद दादा चुप । फिर क्या हुआ दादा बताईये ना, हमारा अनुनय । और....... एक जंगल में प्रवेश कर गया वह, शाम का वक्त, सन्नाटा, हवा की साँय साँय, झींगुरों की किर्र किर्र, बीच बीच में उल्लुओं की आवाज घू ...घू .....घू ......घू घू पर हमारा राजकुमार निडर चलता ही चला गया और अचानक सुनाई दी शेर की दहाड़ हा ................आ........................हा और अगले ही क्षण एक ही छलांग में शेर राजकुमार के ऊपर । राजकुमार के साथ साथ हमारी भी ऊपर की सांस ऊपर और नीचे की नीचे । शेर के पंजे राजकुमार की छाती पर, मुँह खुल गया और दांत चमके जैसे बिजली कौंध गई हो। हम सांस रोक कर प्रतीक्षा में कि अब गया राजकुमार । पलक झपकते ही राजकुमार ने अपना एक हाथ शेर के जबडे में फँसा दिया और दूसरे हाथ से एक बडी सी लकडी शेर के गले में डाल दी । अब शेर सकते में आ गया न उगलते बने न निगलते । मौका पाकर राजकुमार ने हाथ निकाल लिया और एक बडे से पत्थर से शेर का खात्मा कर दिया । राजकुमार के साथ साथ हमारी भी जान में जान आ जाती ।
इसी तरह एक के बाद एक संकट आते और राजकुमार उनको पार करता हुआ आगे बढता जाता । और फिर आता आखरी संकट ।
राक्षस को हरा कर रात को राज कुमार गहरी नींद सोया । अब उसे समंदर पार करके तालाब तक पहुँच कर अक्षय कमल लाना था । वह समंदरके किनारे पहुँचा, वहाँ एक नाव खडी थी । राजकुमार नाव में बैठ कर चल पडा । वह पूरा जोर लगा कर नाव को खेने लगा । समंदर की दीवार जितनी ऊँची भयंकर लहरें उसकी नाव के ऊपर से गुजरती पर वह नाव को सावधानी से बचाकर आगे बढता । इन लहरों से बचता तो तूफान उसे घेरते उसकी नैया यूँ हिचकोले खाती जैसे अब उलटी तब उलटी लेकिन कुछ उसका साहस और कुछ ईश्वर की मदद से वह आगे बढता ही जाता। इस समंदर से जहां उसे नदी के अंदर प्रवेश करना था ठीक उसके पहले एक और भयानक संकट उसकी राह देख रहा था । इस समंदर में थे दो पहाड़ जो बराबर एक दूसरे के पास आते और कुछ पल ठहर कर दूर हो जाते । यह क्रम निरंतर चलता ही रहता । अब कैसे जाये राजकुमार की नैया इन पहाडों के बीच से । उसके चूर चूर होने का पूरा अंदेशा । राजकुमार मन ही मन ईश्वर को याद करने लगा । तभी उसने सोचा कि यदि वह कितने देर में पहाड दूर जाकर वापस आते हैं यह पता लगाले तो वह अपनी नाव उतनी ही या उससे कम देर में पहाडों के बीच से गुजा़र कर उस पार जा सकता है । और राजकुमार अपनी नैया को पहाडों के पास ले आया और जैसे ही पहाड़ पास आये वह चौकन्ना हो गया । पहाडों के दूर होना शुरू होते ही उसने अपनी सांसें गिनना आरंभ किया और तब तक गिनता रहा जबतक पहाड फिर से पास पास आने लगे । उसे अपनी नाव पचास की गिनती से पहले पहाडों के बीच में से निकाल कर ले जानी थी । अब राजकुमार और आगे बढ आया और जैसे ही पहाड़ दूर होने लगे वह अपनी नौका बीचोंबीच ले आया और जैसे जैसे पहाड दूर हों वैसे वैसे वह नौका आगे बढाने लगा और आधी से ज्यादा नौका उस तरफ आ गई । अब पहाड़ दूर जाकर एक क्षण को रुक गये और उन्होंने धीरे धीरे वापस आना शुरू किया । राजकुमार की नाव एक चौथाई अभी भी इस पार । राजकुमार पूरा जोर लगा कर नाव को खेने लगा इधर पहाड़ भी धीरे धीरे पास आते जा रहे थे, नाव को थोडा हिस्सा पार हुआ पर अभी भी आखरी का छोर इसी तरफ था । राजकुमार ने जी जान लगा दी नाव को पार करने में लेकिन पहाड़ अब एकदम करीब थे, लगा कि नही हो सकेगी नैया पार लेकिन एक जोरदार चप्पू का झटका और नैया पार और उसी क्षण दोनो पहाड़ एकदम पास । राज कुमार के चेहरे पर मुस्कान और हम एक गहरी सांस छोडकर शांत । फिर तो सब कुछ आसानी से हो जाता । राजकुमार समंदर से नदी में प्रवेश करता, गाँव में जाता तालाब से अक्षय कमल लेकर वापस आता । अक्षय कमल सूंघते ही राजकुमारी जाग जाती और राजकुमार से विवाह करती और वे दोनो सुख से रहने लगते ।
बुधवार, 17 अक्तूबर 2007
मन का एक कोना
मेरे मनका एक कोना रखा है मैने सुरक्षित अपने लिये ,
इस कोने में रहती है एक लडकी
बालिश, अल्हड, भोली
उसके बचपने में बहने देती हूँ मै उसको,
संजोकर रखती हूँ उसकी प्यारी प्यारी बोली
मेरा पीछा करते वार्धक्य की होने नही देती उसको आहट
उसके कैशोर्य में डूबने देती हूं उसे और सहेज कर रखती हूँ
उसकी खिलखिलाहट
उसकी आसमाँ को छूने की महत्वाकांक्षा को खूब देती हूँ खाद और पानी
और उसका विकास देख कर खुश होती हूँ मन ही मन
यह मेरा और उसका एक सांझा राज़ है तभी तो
मुझे ऐसे ही अलग रखना है ये कोना खास मेरा सिर्फ मेरे लिये ।
आजका विचार
ईश्वर हमारी सब प्रार्थनाएं सुनता है पर कभी कभी उसका जवाब होता है....नही ।
स्वास्थ्य सुझाव
पेट संबंधी ज्यादा तर तकलीफें रोज दही खाने से दूर हो जातीं हैं ।
इस कोने में रहती है एक लडकी
बालिश, अल्हड, भोली
उसके बचपने में बहने देती हूँ मै उसको,
संजोकर रखती हूँ उसकी प्यारी प्यारी बोली
मेरा पीछा करते वार्धक्य की होने नही देती उसको आहट
उसके कैशोर्य में डूबने देती हूं उसे और सहेज कर रखती हूँ
उसकी खिलखिलाहट
उसकी आसमाँ को छूने की महत्वाकांक्षा को खूब देती हूँ खाद और पानी
और उसका विकास देख कर खुश होती हूँ मन ही मन
यह मेरा और उसका एक सांझा राज़ है तभी तो
मुझे ऐसे ही अलग रखना है ये कोना खास मेरा सिर्फ मेरे लिये ।
आजका विचार
ईश्वर हमारी सब प्रार्थनाएं सुनता है पर कभी कभी उसका जवाब होता है....नही ।
स्वास्थ्य सुझाव
पेट संबंधी ज्यादा तर तकलीफें रोज दही खाने से दूर हो जातीं हैं ।
रविवार, 14 अक्तूबर 2007
मन
मन उदास तो उदास मैं भी
मन रोया मैं रोई
मन जागा तो जागूं मै भी
मन सोया मैं सोई
मन खुश तो झोलीभर खुशियाँ
मैं भरकर ले आई
मन दुख गया तो फिर सुख कैसा
सुख की नही परछाई
मन उमंग से भरी पतंग सा
उडता फिरे आकाश
बिन कारण मुसकाऊं मै भी
घर में भरूं उजास
मन प्रसन्न तो फिर मै भी
खनकाऊँ चूडी पायल
मन के संग संग नाचूं गाऊँ
मन की बस मै कायल
किसने देखा है इस मनको
भेद ये किसने जाना
वैसे तो बचपन का साथी
फिर भी है अनजाना
आज का विचार
हमेशा अच्छा सोचिये, इससे आपकी प्रतिकार प्रणाली स्वस्थ रहेगी
आज का स्वास्थ्य सुझाव
हीमोग्लोबीन बढाने के लिये खजूर तथा अंजीर का सेवन भी हितकारी है ।
मन रोया मैं रोई
मन जागा तो जागूं मै भी
मन सोया मैं सोई
मन खुश तो झोलीभर खुशियाँ
मैं भरकर ले आई
मन दुख गया तो फिर सुख कैसा
सुख की नही परछाई
मन उमंग से भरी पतंग सा
उडता फिरे आकाश
बिन कारण मुसकाऊं मै भी
घर में भरूं उजास
मन प्रसन्न तो फिर मै भी
खनकाऊँ चूडी पायल
मन के संग संग नाचूं गाऊँ
मन की बस मै कायल
किसने देखा है इस मनको
भेद ये किसने जाना
वैसे तो बचपन का साथी
फिर भी है अनजाना
आज का विचार
हमेशा अच्छा सोचिये, इससे आपकी प्रतिकार प्रणाली स्वस्थ रहेगी
आज का स्वास्थ्य सुझाव
हीमोग्लोबीन बढाने के लिये खजूर तथा अंजीर का सेवन भी हितकारी है ।
गुरुवार, 11 अक्तूबर 2007
हे देवी
हे समस्त जीवों की माता, दया, क्षमा, शांति रूपिणी
सब जीवोंमें तुम ही स्थित हो, दुर्गे मांगल्यकारिणी
शक्तीरूप तुम, भक्तीरूप तुम, कांतिरूप तुम ही भ्रांति
वीरों की आराध्या, तुम ही माया, छाया, सरस्वती
सिंहारूढा, असुर नाशिनी, तुम ही कष्टों की निवारिणी
भक्तिप्रिया तुम भक्त वत्सला, तुम ही सौभाग्य दायिनी
महेश्वरी तुम ही महाकाली, तुम ही सूक्ष्म स्वरूपिणी
सुमंगली, भैरवी, सती तुम, तुम ही माँ विघ्न नाशिनी
नवरात्री के शुभ पर्व पर तुमको माँ शत शत प्रणाम
आशिर्वाद रूप में देना भारत को सर्व-गुणी संतान
आज का विचार
अच्छा विचार चिर-स्थायी है
स्वास्थ्य सुझाव
हीमोग्लोबीन बढाने के लिये खाने में साबुत मूँग का प्रयोग करें .
सब जीवोंमें तुम ही स्थित हो, दुर्गे मांगल्यकारिणी
शक्तीरूप तुम, भक्तीरूप तुम, कांतिरूप तुम ही भ्रांति
वीरों की आराध्या, तुम ही माया, छाया, सरस्वती
सिंहारूढा, असुर नाशिनी, तुम ही कष्टों की निवारिणी
भक्तिप्रिया तुम भक्त वत्सला, तुम ही सौभाग्य दायिनी
महेश्वरी तुम ही महाकाली, तुम ही सूक्ष्म स्वरूपिणी
सुमंगली, भैरवी, सती तुम, तुम ही माँ विघ्न नाशिनी
नवरात्री के शुभ पर्व पर तुमको माँ शत शत प्रणाम
आशिर्वाद रूप में देना भारत को सर्व-गुणी संतान
आज का विचार
अच्छा विचार चिर-स्थायी है
स्वास्थ्य सुझाव
हीमोग्लोबीन बढाने के लिये खाने में साबुत मूँग का प्रयोग करें .
मंगलवार, 9 अक्तूबर 2007
वे दु:ख बेचते हैं
कालेज में किसी कवी की एक अंग्रेजी़ कविता पढी थी
उसकी कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार थीं,
We look before and after
and pine for what is not
Our sincerest laughter
With some pain is fraught
Our sweetest songs are those
Which tell us the saddest thought
उसकी सच्चाई अब जाकर मालूम पड रही है । खास कर टी वी के धारावाहिक देख कर । कोई भी धारावाहिक देखिये,
बिलकुल व्यंग वाले ऑफिस-ऑफिस को ही ले लीजिये, दुख को ही भुनाया जाता है, बेचारे मुसद्दीलाल हमेशा हारते ही रहे हैं । उनकी परेशानियों का कोई अंत नही । पारिवारिक धारावाहिकों की नायिकाओं का दुःख है कि दूर ही नही होता । षड़यंत्री महिला रिश्तेदारों से उन्हे भगवान भी नही बचाते । जिग्यासाओं, कावेरियों, कुकी काकियों तथा सिंदूराओं से मेरा तो कभी पाला पडा़ नही, पता नही किन परिवारों में बसतीं हैं ये ? शायद अति पैसैवाले परिवारों में । और तो और कहानी का कोई सामान्य अंत भी नही होता ।
दुखों को भुनाने के चक्कर में वाहिनियाँ इन्हे खींचती ही चली जाती हैं तब तक, जब तक की जनता उनका टी आर पी कम नही कर देती । कई बार तो फिर हडबडाहट में इन्हें समेट लिया जाता है । सामान्य पारिवारिक कथाओं की कब मर्डर मिस्ट्री बन जाती है पता ही नही चलता । और कहाँ कहाँ से इनके नये रिश्तेदार पैदा होते हैं ये भी । पर हमारी जनता में भी अद्भुत सब्र है । यह सब परोसा हुआ कचरा वह बकरी की तरह खाती ही रहती है, एक दो नही पांच पांच सालों तक ।
पचास तथा साठ के दशकों में दुखान्त फिल्मों का बोलबाला था । मीना कुमारी, नूतन, निम्मी इन फिल्मों की रानियाँ थीं ।
इन्हे हिंदी फिल्मों की ट्रेजेडी क्वीन कहा जाता था । और लोग बाग खास कर महिलाएं इन फिल्मों को खूब देखतीं और भरभर के आंसू बहातीं । पैसे देकर दुख मोल लेतीं ।
तब से अब फिल्मों मे ये बदलाव आया है कि वे आंसू नही अब जिस्म की नुमाइश करने लगीं हैं । रुलाने का ठेका अब टी वी वाहिनियोंने ले लिया है । एक के बाद एक दुख इन नायिकाओं पर लादे जाते हैं, अगर कोई अभिनेत्री तंग आकर धारावाहिक छोड देती है तो नायिका की प्लास्टिक सर्जरी करवा के वे नायिका ही बदल देते हैं । लेकिन दुख बेचते ही जाते हैं, आखिर मुनाफे का सौदा जो है ।
उसकी कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार थीं,
We look before and after
and pine for what is not
Our sincerest laughter
With some pain is fraught
Our sweetest songs are those
Which tell us the saddest thought
उसकी सच्चाई अब जाकर मालूम पड रही है । खास कर टी वी के धारावाहिक देख कर । कोई भी धारावाहिक देखिये,
बिलकुल व्यंग वाले ऑफिस-ऑफिस को ही ले लीजिये, दुख को ही भुनाया जाता है, बेचारे मुसद्दीलाल हमेशा हारते ही रहे हैं । उनकी परेशानियों का कोई अंत नही । पारिवारिक धारावाहिकों की नायिकाओं का दुःख है कि दूर ही नही होता । षड़यंत्री महिला रिश्तेदारों से उन्हे भगवान भी नही बचाते । जिग्यासाओं, कावेरियों, कुकी काकियों तथा सिंदूराओं से मेरा तो कभी पाला पडा़ नही, पता नही किन परिवारों में बसतीं हैं ये ? शायद अति पैसैवाले परिवारों में । और तो और कहानी का कोई सामान्य अंत भी नही होता ।
दुखों को भुनाने के चक्कर में वाहिनियाँ इन्हे खींचती ही चली जाती हैं तब तक, जब तक की जनता उनका टी आर पी कम नही कर देती । कई बार तो फिर हडबडाहट में इन्हें समेट लिया जाता है । सामान्य पारिवारिक कथाओं की कब मर्डर मिस्ट्री बन जाती है पता ही नही चलता । और कहाँ कहाँ से इनके नये रिश्तेदार पैदा होते हैं ये भी । पर हमारी जनता में भी अद्भुत सब्र है । यह सब परोसा हुआ कचरा वह बकरी की तरह खाती ही रहती है, एक दो नही पांच पांच सालों तक ।
पचास तथा साठ के दशकों में दुखान्त फिल्मों का बोलबाला था । मीना कुमारी, नूतन, निम्मी इन फिल्मों की रानियाँ थीं ।
इन्हे हिंदी फिल्मों की ट्रेजेडी क्वीन कहा जाता था । और लोग बाग खास कर महिलाएं इन फिल्मों को खूब देखतीं और भरभर के आंसू बहातीं । पैसे देकर दुख मोल लेतीं ।
तब से अब फिल्मों मे ये बदलाव आया है कि वे आंसू नही अब जिस्म की नुमाइश करने लगीं हैं । रुलाने का ठेका अब टी वी वाहिनियोंने ले लिया है । एक के बाद एक दुख इन नायिकाओं पर लादे जाते हैं, अगर कोई अभिनेत्री तंग आकर धारावाहिक छोड देती है तो नायिका की प्लास्टिक सर्जरी करवा के वे नायिका ही बदल देते हैं । लेकिन दुख बेचते ही जाते हैं, आखिर मुनाफे का सौदा जो है ।
रविवार, 7 अक्तूबर 2007
समझ की समझ
बहुत पहले किसी सिनेमा में अमिताभ बच्चन ने एक संवाद कहूँ या छंद, बोला था ।
समझ समझ के समझ को समझो, समझ समझना भी एक समझ है
समझ समझ के भी जो न समझे, मेरी समझ में वो नासमझ है
तो भैया अपनी अपनी समझ होती है और दूसरे उसे समझ पाये ये जरूरी नही ।
बचपन में कोई ४-५ साल की रही हूँगी मैं, तब एक गाना सुना था ।
चुप चुप खडे़ हो ज़रूर कोई बात है,
पहली मुलाकात है जी पहली मुलाका़त है ।
तब मेरी अदना सी बुध्दी में ये आया कि हो न हो दो लड़कियाँ हैं जो चोरी से कुछ खा रहीं हैं ।
मेरी परेशानी ये थी कि अगर पहली मूली ( मराठी में मूली को मुळा कहते हैं) खा रही है तो दूसरी
क्या खा रही है ? शायद गाजर । मेरी बाल बुध्दी ने मुलाका़त को अपने हिसाब से मूला खात कर
लिया और चुपचाप भी खडी हैं, तो जाहिर है चोरी से ही खा रही होंगी । बहुत छोटी थी इसलिये तब ये
बात किसी को बताई नही।
मेरी एक और समझ की कहानी सुनिये । उन दिनों रिश्ते-दारी में जिसकी भी जनेऊ (व्रतबंध) होती उस लडके का
पूरा मुंडन होता और उसकी घुटी चप्पी पर मुहल्ले के बच्चे खूब टप्पियाँ मारते । तो उस बार हमारे मामाजी
जिनका नाम अरविंद था उनकी जनेऊ हुई थी और दूसरे लडके उनके सिर पर मार मार कर यह तुक्तक
बोलते थे ।
चम्मन गोटा, लाल बटाटा
हिरवा कांदा, काळा अरविंदा (हरा कांदा काला अरविंदा )
मामाजी बडे धाकड़ थे वे भी उन लडकों की जमकर पिटाई करते । पर मेरे मन में यह बात बैठ गई कि चमन या चम्मन याने सिर । फिर एक फिल्म आई थी शायद हम पंछी एक डाल के । बच्चों की फिल्म थी
तो गणेश उत्सव में मुफ्त दिखाई गई थी । उसमें एक गाना था,
ये चमन हमारा अपना है इस देश पे अपना राज है
मत कहो कि सर पे टोपी है कहो सर पे हमारे ताज है ।
गाना सुन कर तो मुझे पूरा विश्वास हो गया कि मेरी धारणा बिलकुल सही है । और सर पे टोपी वाली बात ने
तो मानो इसे पक्का कर दिया । फिर देश और राज वाली बात पर कौन ध्यान देता । और उर्दू किस
चिडिया का नाम है यह किसे पता था । और तो और यह बात सबको पता भी चल गई । फिर क्या था
इस बात पर तब तो जो खिंचाई हुई सो हुई पर आज भी भाई तो भाई मेरे अपने बच्चे भी मुझे चिढाने
से बाज़ नही आते ।
तो सारी समझ की बातें हैं जिसकी जैसी भी हो । अब अगर कुछ राजनीतीबाजों की समझ में न्यूक्लीयर डील नहीं आती तो ये उनकी समझ है । और कुछ समझकर नहीं समझते तो ये उनकी । अपनी अपनी समझ और जरूरतों के साथ जनता की जरूरतों को भी तो समझो भाई लोगों । जरूरत है आज बिजली की जिसकी किल्लत तो राजधानी में भी अच्छी तरह महसूस हो रही है । फिर दूर दराज के गाँवों की तो बात ही क्या । एक बिजली की समस्या हल होने से कितने और सवाल हल हो जायेंगे यह किसी की भी समझ में आ सकता है । उत्पादन बढेगा, रोज़गार बढेंगे, चीजों की आवक ज्यादा होगी तो दाम गिरेंगे, निर्यात बढेगा, खुशहाली आयेगी ।
और अभी तो आगे वहुत से व्यवधान हैं जिन्हे पार करना है । फिर अपनी तरफ से तो रुकावटें मत डालो भाई । ईश्वर करे सबकी समझ में आ जाये ।
शुक्रवार, 5 अक्तूबर 2007
दुश्मनी दोस्ती जो हो जाये
तू भी आबाद रहे, मैं भी न बरबाद रहूँ
राह कुछ ऐसी निकल आये तो क्या अच्छा हो ।
तेरे गुलशन में बहारें आयें,
मेरा गुलशन खिला-खिला सा हो
मौसम गर ऐसे बदल जाये तो क्या अच्छा हो ।
तेरी तलवारें म्यान के अंदर,
मेरे तरकश में कोई तीर न हो
जंग गर खत्म ये हो जाये तो क्या अच्छा हो ।
तू भी आगे बढे और मै भी न पीछे को रहूं
दौड कुछ ऐसे हमारी हो तो क्या अच्छा हो ।
तू भी खुशीखुशी रहे, मैं भी न नाशाद रहूँ
मन्नतें पूरी जो हो जायें तो क्या अच्छा हो ।
तू भी अपना हाथ बढा, मैं भी कुछ आगे बढूँ
दुश्मनी दोस्ती जो हो जाये तो क्या अच्छा हो
आज का विचार
वाचन, चिंतन , मनन ।
आज का स्वास्थ्य सुझाव
रोज तिल (कच्चे या भुने आपके हाजमे पर निर्भर है )खाने से हड्डियाँ स्वस्थ रहेंगी ।
मंगलवार, 2 अक्तूबर 2007
कविता का शौक
कविता हमें घु्ट्टी में नहीं तो चाय में जरूर पिलाई गई थी।
मुझे याद है गरमी की छुट्टियों में छत पर बिस्तर पर लेटे लेटे अंताक्षरी खेलना जिसमें हम भाई बहन ही नही
हमारे काका (पिताजी) और ताई (माँ) भी शामिल होते थे, बशर्ते कि फिल्मों के गानें नहीं गाये जायेंगे ।
केवल कविताओं का ही प्रयोग होगा । और क्यूंकि सबके साथ ज्यादा मजा़ आता हम भी खुशी खुशी तैयार हो जाते थे ।
ताई और काका का संस्कृत का खजा़ना प्रचंड था । हमें हिंदी और मराठी कविताओं का ही सहारा होता था, अनिवार्य़ संस्कृत के
सहारे थोडे बहुत श्लोक हमें भी बचा लेते थे। पर ये एक बडा कारण रहा कविता के शौक का । मुझे याद है मुझसे बडा मेरा भाई अनिल तो दिन भर कविता की पुस्तकें लेकर बैठा रहता था और रातमें अंताक्षरी खेलने का प्रस्ताव सबसे पहले हमेशा उसी के तरफ से आता।
कविताएँ याद करना और उन्हे पसंद करना यह एक आदत सी बन गई थी ।
सबसे बडे दादा (डाक्टर शरद काले) तो बचपन से कविताएँ लिखते थे । रात का खाना सब एक साथ खाते और यही वक्त होता था दादा की नई ताजी कविता सुनने का । कब खाना खत्म हुआ यह पता भी न चलता । झूठे हाथ सूख जाते पर थाली से उठकर कोई हाथ धोने भी न जाता । कविता और उसके रसग्रहण में ही हम सब डूबे रहते ।
मैने एक बार दादा को राखी पर एक कविता लिख भेजी । उसके जवाब में जो कविता दादाने भेजी वह मुझे हमेशा याद रहेगी।
मानस हुआ प्रफुल्लित मेरा पाकर पत्र तुम्हारा आशा
पत्र नही वह थाल तु्म्हारा नीरांजन थी उसकी भाषा
उस भाषा के नीरांजन की ज्योति तुम्हारी सुंदर कविता
जिसकी अलंकार आभा से छुप जाता कुम्हलाकर सविता
ये पहली चार पंक्तियाँ थीं। और अंतिम चार थीं ,
भाव भरे भैया के मुख सा भविष्य मंगल बहिन तुम्हारा
तुमसे झरती रहे हमेशा काव्य सुधा की रिमझिम धारा
आशिर्वाद यही देता हूं राखी के बदले में आशा
आशा है तुम भी न करोगी विफल कभी यह मेरी आशा
हमारी ताई भी प्रसंगानुसार कविता करती थीं । शादी का मंगलाष्टक, नामकरण की लोरी उनकी विशेषता थी । पर मराठी में ।
काका थे तो इंग्लिश के प्राध्यापक परंतु हिंदी, मराठी संस्कृत तथा इंग्लिश चारों भाषाओं पर उनका अद्भुत प्रभुत्व था
गणेशोत्सव कालेज के गेदरिंग, कवि सम्मेलन, व्याख्यान, संगीत की महफिल, कोई सांस्कृतिक कार्यक्रम ऐसा न होता जहां हमारा परिवार न जाता हो । काका ने कभी कविताएं नही लिखीं पर वे शीघ्र कवि थे । एक बार वे तत्कालीन भाषण प्रतियोगिता के अध्यक्ष थे । विषय था लड़ गया छकड़ा हमारा उनकी मोटर कार से । सब के भाषण हुए , समारोप करते हुए काका ने समाँ बांध दिया । उन्होंने कहा
लेम्प गुल, घंटी नदारद, ब्रेक था चलता नही
लड गया छकडा़ हमारा उनकी मोटर कार से ।
ये बात तबकी है जब क्या विद्यार्थी क्या प्राध्यापक सब साइकल से ही आया जाया करते थे ।
अक्का और मै भी यदा कदा कलम चला लेते थे । और तो और हमारे सबसे छोटे भैया मिलिंद ने दूसरी कक्षा में ही दो लाइन की पेरोडी बना दी । तब मन मोरा बावरा गाना खूब चला था । इसने अपनी कक्षा में सुनाया
पेट मोरा हावरा, निस दिन खाये भजिये बेसन के ।
हावरा का अर्थ मराठी में खाने का लालची होता है । तो ऐसे पनपा हमारा कविता का शौक ।
सोमवार, 1 अक्तूबर 2007
हक
हमें न आये कभी ख्वाब वाब महलों के
मगर हमें भी तो हक है कि छत तो सर पर हो ।
न हमने चाहा कभी बादलों में जा उडना
मगर अपनें पाँवों के नीचे इक रह-गुजर तो हो ।
तुम्हें मुबारक हो तुम्हारे मखमली बिस्तर
मगर हम थककर जो लौटें कोई दर तो हो ।
न की थी आस कभी भी चमन के फूलों की
मगर बहार का आँखों पे कुछ असर तो हो ।
नसीबों वाले हो खा रहे हो मालपुए
हमको रोटी ही सही मगर पेट-भर तो हो ।
तुम्हींने लूट लिये सारे चैन ओ सुख मेरे
किसी अदालत में अब फरियाद की सहर तो हो ।
कुछ मेरे पास अब तो नही रहा बाकी
ले दे कर इक वोट बचा है, न बे-असर वो हो ।
आज का विचार
सलाह और मदद बिन मांगे न दें ।
स्वास्थ्य सुझाव
जुकाम से बचें, सुबह की चाय अद्रक वाली और शहद डाल कर पीयें ।
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