शुक्रवार, 29 अप्रैल 2016

गर्मी की क्षणिकाएँ

पसीना, लू के थपेडे और ये झुंझलाहट
बिलकुल तुम्हारे गुस्से से तमतमाये चेहरे सी,
फिर पन्ने की, तरबूजे, खरबूजे की तरी
बिलकुल तुम्हारे, मान जाने के बाद की हँसी जैसी।

कहाँ गये वे खस के पर्दे, कहाँ गये वे ठंडे कूलर,
वो खुशबू वो रूह की शांति, क्या देगा ये एयर कंडीशनर
इस गर्मी में पर तुम मिल जाओ तो, लू भी लगे पुरवाई सी
और धूल.. धूल, डर्मीकूल पाउडर।


ऊपर गुस्साया सूरज, नीचे जलती अंगार सी धरती,
बूंदों के लिये तरसता जीवन और इन्सानों की बेचारगी
किसी के तो होंगे पुण्य जो जगायेंगे सोये ईश्वर को कि
वह भी रो पडे हमारे दर्द में और हो बारिश तृप्ति की


टूटी चप्पल के साथ घिसटते जलते पाँव,
फटे कमीज को गीला करता पसीना,
ओर उसी को सुखाती गर्म हवा, मन में ये सोच कि
आज भी नही मिला काम और न ही मिला कहीं पानी


रविवार, 17 अप्रैल 2016

अकाल









सूखी नदियाँ,सूखे ताल
प्यासे इन्साँ, जानवर बेहाल,
चटखी धरती, दरार दरार,
सूरज बरसाये अंगार।

जलते पांव, लतपथ काया
दूर तक जाना ही जाना
दूर से ही मिलेगा पानी
दो बूँद लाना ही लाना

साफ मिले या मिले मैला
प्यास तो बुझानी है,
पीने से चाहे मिले बीमारी,
पानी फिर भी पानी है।

कब तक तरसेंगी अंखियाँ,
बादल के दरस को
कब तक ये तन तरसेगा
बूंदों के परस को।

रोज प्रार्थना करते स्वर में,
हम मिलायें अपना भी स्वर
तब शायद पसीजेगा पत्थर
औ बनेगा कृपालू ईश्वर।

फिर छायेंगे बादल काले
चमकेगी  लकदक बिजली
बरसेगी जलधार धरा पर
तृप्त धरा हो खिली खिली।

चित्र गूगल से साभार।
हाल ही में मै पूना गई थी। महाराष्ट्र में पानी की भयंकर कमी के चलते ये विचार मन में आये।