इस बार वापिस आने के बाद
महीने के अंदर ही हमने घूमने का कार्यक्रम बना लिया। मालगुंड, पुणे, पनवेल, ठाणे और वापिस।
मालगुंड- गणपतिपुळे के साथ
ही लगा हुआ कोकण का एक गाँव जो अभी भी अपने गांव-रूप को जतन किये हुए है।
मिलिंद और अचला ( मेरा छोटा भाई और भावज) ने वहीं अब अपना घर बसा लिया है। रांची
में बहुत साल किर्लोस्कर इंजिनों की मरम्मत और बिक्री का काम करने के बाद अवकाश का
शांत सा बसेरा।
इन दोनों के वहां जाकर बसने
का एक कारण अचला की बहन अलका और बहनोई श्री वैद्यजी की मालगुंड में जा कर बसना था। वे चाहते थे संग साथ तो बस उन्होने ही जमीन
खरीदवाई और मकान भी बनवा दिया। मिलिंद अचला को सिर्फ २-४ बार वहां चक्कर लगाने और
चेक काटने की जरूरत पडी और चाभी उनके हाथ में। सुंदरसा दो तल्ला मकान २ शयनागार ऊपर दो नीचे, नीचे ही बडा
सा हॉलनुमा ड्रॉइंगरूम कम लिविंग रूम कम किचन और डायनिंग। ऊपर बडी सी छत और नीचे बाहर
अहाता पेड पौधे लगाने के लिये। सडक पार करते ही एक बडी सी केवडे की झाडी और झाडी
के तुरंत बाद सुंदर सा रत्नाकर यानि
समंदर। यह मै इस लिये बता रही हूँ क्यूं कि हम रहते हैं दिल्ली जैसे महानगर के एक
फ्लैट में और ये सब कुछ कल्पना ही है। बहर हाल हमारे सफर पर आते हैं।
रत्नागिरि स्टेशन पर जब
हमारी त्रिवेंद्रम राजधानी कोई २२ घंटे के सफर के बाद पहुँची तो मिलिंद अचला को
स्टेशन पर पाया वे गाडी लेकर हमें लेने आये थे क्यूं कि रत्नागिरि से मालगुंड के
लिये वही सही था। बस सेवा नही के बराबर तो गाडी या टेम्पो ही हैं जाने आने के
साधन।
हमारा सामान जिसे उठाने के
दिल्ली में कुली ने ६०० रुं लिये थे मालगुंड में महज १२० रूं लिये। इस के बाद हम मिलिंद
की ईको में बैठ कर चल पडे मालगुंड की और। कोई एक घंटे की सुखद यात्रा जिसमें बराबर
आपको सागर दर्शन होता रहता है । यह किसी तरह कैलिफोर्निया की Seventeen miles scenic drive से कम न थी । घर पहुँचे नहा धो कर खाना खाया और आराम किया। शाम को गये बीच पर
घूमने लंबे खाली बीच पर दो चक्कर लगाये और सूर्यास्त का बहुत सुंदर दृष्य का आनंद
लिया। सूर्यदेव धीरे धीरे उत्तरी गोलार्ध की और प्रस्थान कर रहे थे। क्षितिज पर
जहां आकाश और सागर का मिलन होता सा लग रहा था, हम प्रतीक्षा में थे कि सूर्य देव
अब सागर में डुबकी लगा कर उत्तरी गोलार्ध में कहीं उदित हो रहे होंगे, उनके इसी ही
रूप को देख कर कवि ने कहा होगा,
उदये सविता रक्तः
रक्तश्चास्तमने गतः
संपत्तौच विपत्तौच महताम्
एकरूपता।
हमने कुछ फोटो भी क्लिक
किये।
एक मिलिंद के हथेली पर सूरज
का भी लिया था पर कहीं खो गया। ( CLICK
VDO MVI 0044)
जाते ही हमने मिलिंद से कह
दिया कि हम तो कोकण दो तीन बार घूम चुके हैं, तो इस बार इरादा सिर्फ
सागर किनारे रहने का आनंद
उठाने का है । रोज सुबह उठते ही चाय पान के बाद हम पहुंच जाते बीच पर। मिलिंद-अचला
ओर अलका तथा वैद्य साहब की तो यह रोज की ही दिनचर्या थी।तो दूसरे दिन सुबह हम
पहुंचे बीच पर तो सागर देख कर ही आनंद आ गया। (CLICK VDO MVI 0056)
हर दिन सागर का अलग ही रूप होता था एक दिन तो
हमने इतने सी गल्स देखे कि मज़ा आ गया। आप भी आनंद उठायें। (CLICK VDO MVI
0964 )
CLICK VDO MVI 0965
CLICK VDO MVI 0966
मिलिंद को फिर भी चैन न था
। रोज़ ही शाम को गाडी निकाल कर कभी कोई बीच तो कभी किसी मंदिर का प्रोग्राम बन ही
जाता था। वैसे भी कोंकण में समंदर और मंदर ही हैं देखने को और है सम्पन्न प्रकृति
जो हर दिन अपना नया रूप लेकर प्रस्तुत होती है। सागर को ही लें वह हर दिन अलग
दिखता है, सुबह, शाम, दोपहर भी अलग दिखता । नारियल, आम और काजू के पेड और काजू तथा
आम के फूलों की खुशबू एक अदभुत वातावरण की सृष्टि करती थी। इन फूलों को हिंदी में
बौर तथा मराठी में मोहर बोलते हैं।
ऐसे ही एक दिन
मिलिंद हमें जयगड के गणेश मंदिर ले गया। ये मंदिर जिंदल स्टील एन्ड पॉवर कंपनी के
इलाके में है। बहुत ही सुंदर बनाया है। मंदिर का परिसर साफ सुथरा है तथा चारों तरफ
बगीचा है जिसमें रंगबिरंगे फूल खिल रहे थे और तरह तरह के पेड पौधे भी अपनी हरियाली बिखेर रहे थे। मंदिर के
अंदर की गणेश प्रतिमा ने तो मन मोह लिया। । मन में अथर्वशीर्ष का गणेश वर्णन तैरने
लगा।
एकदंतम् चतुर्हस्तम्
पाशमांकुशधारिणम,
रदंचवरदम् हस्तै बिभ्राणम्
मूषकध्वजम्।
रक्तम् लंबोदरम् शूर्प
कर्णकम् रक्तवाससम्,
रक्तगंधानुलिप्तांगम्
रक्तपुष्पैसुपूजितम।
बहुत देर तक मंदिर में ही
रहे फिर चारों तरफ चक्कर लगाया, मन बहुत प्रसन्न था लगा कि शाम सार्थक हो गई । काश
कि हमारे सारे मंदिरों का रख-रखाव ऐसा ही हो। (CLICK
VDO विडियो ००६१)
रोज जब हम बीच पर टहलते
मेरी आंखें रत्नाकर के द्वारा फेके गये रत्नों यानि विभिन्न प्रकार के शंख,
सीपियां और दूसरे समुद्री जीवों के
अवशेषों की तलाश में रहतीं। इसमें अचला की बहुत मदद होती थी. उसकी आँखें इस
कार्य के लिये काफी प्रशिक्षित थीं। मेरे लाये हुए रत्नों में से कुछ की तस्वीरें
तो मै आपको दिखा ही सकती हूँ। (CLICK
VDO विडियो MVI 968)
सोला तारीख को दत्त जयंती
थी । मिलिंद ने कहा, “यहां गांव के दत्तमंदिर में जन्मोत्सव होता है देखोगी”, मैने कहा,” नेकी और पूछ पूछ”। और इस तरह हम शाम को गांव
के मंदिर जा पहुँचे। मंदिर सुंदर ढंग से सजाया गया था और ठसाठस भरा था, जैसे सारा
गांव उमड पडा हो। यही हकीकत थी। गाँव के सारे लोग वहीं थे।
पहले तो दत्तगुरु के भजन
हुए। फिर नामस्मरण हुआ, ‘दिगंबरा दिगंबरा श्रीपाद वल्लभ दिगंबरा’। फिर दत्त जन्म हुआ। जैसे
सचमुच हुआ हो इसी तरह औरतों नें उन्हें पालने में डाल कर झूला झुलाया, लोरियां
गाईं । जन्मोत्सव के पेडे बाँटे गये और नामकरण हुआ। फिर नवजात दत्तात्रय को दर्शन हेतु गोदी में उठा कर
हर भक्त के पास ले जाया गया। यह सब मेरे लिये अनोखा था, लगा गोपाल नीलकंठ दांडेकर
जी के किसी उपन्यास में मेरा प्रवेश हुआ है और में उसका एक हिस्सा बन गई हूँ।
अद्भुत अनुभव। फिर दत्तात्रय जी की आरती
के बाद हम सब विदा हुए। बहुत ही आग्रह के साथ हमें दूसरे दिन के खाने का (पारणं)
न्योता मिला पर हमारा अन्य कार्यक्रम था तो हम इसका आनंद नही उठा पाये। रात का
वक्त होने से हम फोटो नही खींच पाये इसका मलाल रहेगा। रात को छत पर गये और चांद देखा मिलिंद गुनगुनाया चांद फिर
निकला और सुरेश ने चांद को कैमरे में कैद कर लिया।(CLICK VDO विडियो MVI 1034)
फिर एक दिन मिलिंद ने कहा
चलो आज मालगुंड के सारे मंदिर घुमाता हूँ तुम्हे । और हम गांव देवी,
विठ्टल मंदिर, राम मंदिर
तथा एक अलग सा मंदिर जिसमें कई देवी देवताओं की मूर्तियां थीं। जाखा देवी, चंडी
देवी, रवळनाथ, शिव आदि (CLICK VDO विडियो 1006&7)।
राम मंदिर छोटासा था किन्तु
मूर्तियां बहुत सुंदर थीं। हमने वहां रामरक्षा का पाठ भी किया। (CLICK VDO विडियो विडियो
MVI1027)
शिव मंदिर तो हमने पहले भी
देखा था वहां का रख रखाव और मंदिरों के मुकाबले ज्यादा अच्छा है। आप भी देखें (CLICK VDO विडियो mvi
1028)
अचला रोज़ कुछ न कुछ खास
बनाती और मिलिंद अपने चुटकुले सुनाता या फिर बांसुरी बजाता। आप भी सुनें बांसुरी की धुन। (CLICK VDO विडियो MVI 991क&992)
मिलिंद के वहाँ से नेवरे
गांव बहुत पास था वह हमारे मामा (गाडगीळ) लोगों के पूर्वजों गांव था तो मिलिंद ने कहा चलो मामा के गांव चलते हैं। वहां
गये वहां पर गजानन महाराज का अच्छा सा मंदिर है जहां हर साल उत्सव होता है। पर अब
वहां हमारे मामा के गोत्र का कोई भी व्यक्ति नही रहता। सुन कर बडा अजीब लगा कैसे
सारे के सारे लोग अपना गांव छोड कर शहर चले जाते हैं। पिछली बार आये थे तो हम अपने
गांव गये थे ( मायके का गांव घोळप) पर वहां कम से कम एक परिवार तो हमारे नाम और गोत्र
का था और हेदवी गांव (ससुराल का गांव) में तो अभी भी काफी सारे जोगळेकर हैं।
यह सब करते और रोज बीच पर
सैर करते, दिन पर लगा कर निकल गये और आखिर हमारा पुणे जाने का समय आ ही गया। पर
मालगुंड में बिताया समय हमेशा याद रहेगा। और हाँ इस प्रवास की एक और उपलब्धी रही,
अचला बहुत अच्छे रसगुल्ले घर में बनाती है तो मैने भी सीख लिये। कभी बताऊंगी आपको
दाल चावल रोटी पर।
पुणे में विजूताई इनकी चचेरी बहन की और
मेरी भाभी अर्चना की मेहमान नवाज़ी का लुत्फ उठाया। दो मराठी मूव्हीज देखीं उनमें
से एक पितृऋण बहुत ही अच्छी लगी। मेरी दोस्त सुशीला से मिले खूब सारी कविताएं सुनी
और सुनाई। पनवेल में मेरे भांजे रवी उसकी पत्नी जयू और मेरे जीजाजी से मुलाकात की।
ठाणें में देवर प्रकाश और देवरानी जयश्री से मिले। मराठी नाटक देखें । खान पान तो
सब जगह हर घर का स्पेशल रहा। जनवरी ७
तारीख को वापिस दिल्ली पहुंचे और ठंड का वो कहर कि बस। पर घर तो घर ही है, ठंड हो
या गरमी।