शुक्रवार, 26 अक्तूबर 2007

जीने की कला



हमारी आधी से अधिक जिंदगी हम या तो यह सोचते हुए बिता देते हैं, कि बीता हुआ समय कितना अच्छा था या फिर इस चिंता में कि भविष्य कैसा होगा । और जो हमारा आज है उसके लिये हम कुछ नही करते इतना भी नही कि ये आज कैसे आनंद से बीते । अगर हम हर पल में जीना सीख लें तो समझ लेंगे कि हमें जीने की कला आ गई । जैसे कि किसी ने कहा है, Past is history, future is mystery, but this moment is a gift, that is why it is called present. तो एक एक कदम चलें और हर कदम मस्ती में चलें । झूमते गाते चलें । हर पल का आनंद उठाते चलें । आनंद के लिये किसी बडी घटना का इंतजार करने की जरूरत नही है । प्रकृती स्वयं इतनी सुंदर है कि सिर्फ नज़र उठाकर देखने भर की जरूरत है और आनंद स्वयं हमें ढूंढता हुआ चला आयेगा । जो सूर्यास्त और सूर्योदय देखने हम माउंट आबू या दार्जिलिंग जाते हैं वही हमे अपने कमरे की खिडकी से भी उतना ही सुंदर दिखाई दे सकता है बल्कि देता है बस आपको उसे उस पल आँख उठाकर देखना भर है ।
यह दुनिया खूबसूरत चीजों से भरी पडी है हमें सिर्फ नजर भर उठाना है । चीजों से मेरा मतलब बंगले, गाडियाँ तरह तरह के गेजेट्स से नही है । यह महज़ एक कोयल की कूक हो सकती है या बारिश की पहली फुआर, मिट्टी की सौंधी खुशबू या समंदर के किनारे पाँव के नीचे रेत को अनुभव करना या फिर रेल का सफर जिसमें आप स्टेशन पर उतर कर गरमागरम पकौडे खा सकें या बुक स्टॉल पर अपनी मन पसंद मेगझीन या किताब खरीद सकें । या ब्ल़ॉग पर अपने लिखे पर आई कमेंटस् पढ सकें (अब इसके लिये तो आपको कंप्यूटर नामका गेजेट जरूर लगेगा ) ।

हमारी रोजमर्रा की जिंदगी इतनी ज्यादा तनाव पूर्ण और भाग दौड भरी हो गई है कि अक्सर हम अपने आप को बदहवास पाते हैं । घडी के साथ हमारी रेस सुबह से शाम तक चलती ही रहती है ।अगर हम हर पल कुछ करते ना रहें तो हम खुद को दोषी समझने लगते हैं । लाल बत्ती पर होने वाला तमाशा मैने तो बहुत बार भुगता है, और आप सब भी इससे अच्छे से वाकिफ होंगे ।


लाल बत्ती के हरा होने तक भी किसी को चैन नही है । हॉर्न की कर्ण भेदी आवाजें , गडियों का एक दूसरे से आगे घुसना, और तो और बसें भी पीछे नहीं हैं, तमाम चिल्लपों मची हुई । परिणाम, शांती से जिस ट्राफिक लाइट को पार करने में पाँच से दस मिनट लगते वहीं अधैर्य के कारण 20 मिनट लग जाते हैं । बस या ट्रेन में चढते हुए भी हम इसी अधैर्य का परिचय देते हैं । किसी भी लाइन में लगकर देख लीजीये चाहे वह सिनेमा के टिकिट की हो या मंदिर में भगवान के दर्शन की । हम अपने इसी बेचैनी का प्रदशर्न करते हैं । भाई ( या बहन भी, कोई मुझे अपनी जाति का पक्षपाती न समझे) इतनी जल्दी किस बात की है, ठंड रख ।

छोटी छोटी बातें जो किसी तरह हमारे बस में नही होतीं हमें परेशान कर डालती हैं । जैसै ट्रेन का लेट होना या बीच रास्ते में बस का खराब हो जाना, मैने तो यह बहुत बार भुगता है । भुगता शब्द से ही आप समझ गये होंगे कि उस वक्त भुनभुनाने में मै किसी से पीछे नही थी । पर इस से होता क्या था तनाव बढता था, थकान हो जाती थी, और घर पहुँचने पर घर वालों की खैर न होती थी क्यूं कि सारी भडा़स तो उन्ही पर निकलती थी न । आप कहेंगे खुद तो वही किया ओर अब हमें सिखाने चली हैं । बात तो ठीक है आपकी पर सुबह का भूला शाम को घर आ जाये तो उसे भूला नही कहते , नही कहते न !

इस संदर्भ में मुझे याद आ रहे हैं डॉक्टर मोर्स और उनकी बेटी एलिझाबेथ । वे हमारे यहाँ भारत घूमने आये थे । जिस दिन वे लोग आगरा घूमने गये थे उस दिन आगरा में जातीय दंगे हो गये । हम घर पर परेशान कि कैसे आयेंगे ये लोग अब वापस, मेरे पती ने उनके साथ जाने के लिये प्रस्ताव भी रखा था लेकिन उन्होने यह कह कर मना कर दिया था कि उन्हें protected environment में मजा नही आयेगा । दंगों के इलाके से तो एक स्कूटर वाला उन्हें बचा कर ले आया था पर उनकी ट्रेन जो सुबह पांच बजे चलने वाली थी
दो घंटे लेट हो गई थी । इसके बावजूद कि एक दिन पहले ही वहाँ दंगे हुए थे ये बाप बेटी खुश कि चलो थोडा टाइम मिल गया
तो Sun rise के स्नेप्स ले लेते हैं, ऑटो में बैठे अपना मन पसंद spot ढूंडा और खूब तसवीरें लीं । और वापस आकर खुशी खुशी ट्रेन में बैठे, घर पहुंचे और खूब हँस हँस कर सारी बातें सुनाईं । मै तो हैरान कि ऐसे भी लोग होते हैं !

और हम सब चिंता बडी करते हैं । जिन बातों से हम फिक्रमंद होते हैं उनमें से आधी से ज्यादा तो बातें कभी होती ही नही हैं । इस कारण हम अपना सुख चैन जरूर खोते हैं । इस फिक्र की जगह हम इन चिंता के कारणों को क्रम से लगालें और उनका हल ढूँढे तो हमारा दिमाग भी बिझी रहेगा और कोई हल भी निकलेगा । और एक बडे काम की चीज़ है विश्वास अपने ऊपर और लोगों की अच्छाई के ऊपर । बहुतसे हमारे काम तो उस विश्वास के बल बूते पर ही पार लग जाते हैं । तो जो करना ज़रूरी है वह करो और भूल जाओ । मेक्सिकन लोग अपने घर में एक कपडे की गुडिया रखते हैं जिसे वे वरी डॉल बोलते हैं, अपनी सारी चिंताएं वे लोग इस वरी डॉल को दे कर चिंता मुक्त हो जाते हैं । आयडिया अच्छा है न !

अगर इनसान से सिर्फ एक चीज मांगने को बोला जाय तो वह क्या मांगेगा ! शायद खुशी । तो खुश रहिये और खुश रखिये ।

4 टिप्‍पणियां:

अनिल रघुराज ने कहा…

आशा जी, बूंद-बूंद से बनता है सागर और क्षणों से बनती है जिंदगी। आपने सही कहा है कि हमें आज में, वर्तमान में जीना चाहिए। इसे उपहार मानना चाहिए। स्थितियां प्रतिकूल हैं, तब भी इंसानी फितरत है कि उससे लड़ने में भी आनंद आता है, ऊर्जा मिलती है।

पारुल "पुखराज" ने कहा…

।"अगर हम हर पल कुछ करते ना रहें तो हम खुद को दोषी समझने लगते हैं"
bilkul sach kaha aapney..magar thx to blogging ki kuch der sabkuch bhulaa baith tii huun.beautiful post ASHA JI

मीनाक्षी ने कहा…

मेक्सिकन लोग वरी डॉल से चिंता मुक्त हो जाते हैं हमने चिंता हरण ब्लॉग शुरु कर दिया है.
पहले कभी चिंताओं ने घेरा तो डायरी में उनको उतार दिया और चिंता मुक्त हो गए.
जो है आज है ---- बिल्कुल सच है.
आपको पढ़ने मे आनन्द आता है...

Asha Joglekar ने कहा…

आप सबका धन्यवाद ।