मंगलवार, 2 अक्तूबर 2007

कविता का शौक








कविता हमें घु्ट्टी में नहीं तो चाय में जरूर पिलाई गई थी।
मुझे याद है गरमी की छुट्टियों में छत पर बिस्तर पर लेटे लेटे अंताक्षरी खेलना जिसमें हम भाई बहन ही नही
हमारे काका (पिताजी) और ताई (माँ) भी शामिल होते थे, बशर्ते कि फिल्मों के गानें नहीं गाये जायेंगे ।
केवल कविताओं का ही प्रयोग होगा । और क्यूंकि सबके साथ ज्यादा मजा़ आता हम भी खुशी खुशी तैयार हो जाते थे ।
ताई और काका का संस्कृत का खजा़ना प्रचंड था । हमें हिंदी और मराठी कविताओं का ही सहारा होता था, अनिवार्य़ संस्कृत के
सहारे थोडे बहुत श्लोक हमें भी बचा लेते थे। पर ये एक बडा कारण रहा कविता के शौक का । मुझे याद है मुझसे बडा मेरा भाई अनिल तो दिन भर कविता की पुस्तकें लेकर बैठा रहता था और रातमें अंताक्षरी खेलने का प्रस्ताव सबसे पहले हमेशा उसी के तरफ से आता।
कविताएँ याद करना और उन्हे पसंद करना यह एक आदत सी बन गई थी ।

सबसे बडे दादा (डाक्टर शरद काले) तो बचपन से कविताएँ लिखते थे । रात का खाना सब एक साथ खाते और यही वक्त होता था दादा की नई ताजी कविता सुनने का । कब खाना खत्म हुआ यह पता भी न चलता । झूठे हाथ सूख जाते पर थाली से उठकर कोई हाथ धोने भी न जाता । कविता और उसके रसग्रहण में ही हम सब डूबे रहते ।

मैने एक बार दादा को राखी पर एक कविता लिख भेजी । उसके जवाब में जो कविता दादाने भेजी वह मुझे हमेशा याद रहेगी।

मानस हुआ प्रफुल्लित मेरा पाकर पत्र तुम्हारा आशा
पत्र नही वह थाल तु्म्हारा नीरांजन थी उसकी भाषा
उस भाषा के नीरांजन की ज्योति तुम्हारी सुंदर कविता
जिसकी अलंकार आभा से छुप जाता कुम्हलाकर सविता

ये पहली चार पंक्तियाँ थीं। और अंतिम चार थीं ,

भाव भरे भैया के मुख सा भविष्य मंगल बहिन तुम्हारा
तुमसे झरती रहे हमेशा काव्य सुधा की रिमझिम धारा
आशिर्वाद यही देता हूं राखी के बदले में आशा
आशा है तुम भी न करोगी विफल कभी यह मेरी आशा

हमारी ताई भी प्रसंगानुसार कविता करती थीं । शादी का मंगलाष्टक, नामकरण की लोरी उनकी विशेषता थी । पर मराठी में ।
काका थे तो इंग्लिश के प्राध्यापक परंतु हिंदी, मराठी संस्कृत तथा इंग्लिश चारों भाषाओं पर उनका अद्भुत प्रभुत्व था
गणेशोत्सव कालेज के गेदरिंग, कवि सम्मेलन, व्याख्यान, संगीत की महफिल, कोई सांस्कृतिक कार्यक्रम ऐसा न होता जहां हमारा परिवार न जाता हो । काका ने कभी कविताएं नही लिखीं पर वे शीघ्र कवि थे । एक बार वे तत्कालीन भाषण प्रतियोगिता के अध्यक्ष थे । विषय था लड़ गया छकड़ा हमारा उनकी मोटर कार से । सब के भाषण हुए , समारोप करते हुए काका ने समाँ बांध दिया । उन्होंने कहा
लेम्प गुल, घंटी नदारद, ब्रेक था चलता नही
लड गया छकडा़ हमारा उनकी मोटर कार से ।
ये बात तबकी है जब क्या विद्यार्थी क्या प्राध्यापक सब साइकल से ही आया जाया करते थे ।
अक्का और मै भी यदा कदा कलम चला लेते थे । और तो और हमारे सबसे छोटे भैया मिलिंद ने दूसरी कक्षा में ही दो लाइन की पेरोडी बना दी । तब मन मोरा बावरा गाना खूब चला था । इसने अपनी कक्षा में सुनाया
पेट मोरा हावरा, निस दिन खाये भजिये बेसन के ।
हावरा का अर्थ मराठी में खाने का लालची होता है । तो ऐसे पनपा हमारा कविता का शौक ।

5 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

आपकी कविता का शौक पनपने की संस्मरण गाथा बहुत रोचक और दिलचस्प रही. आभार इस संस्मरण को बांटने का. लिखते रहें.शुभकामनायें.

विपुल जैन ने कहा…

वाह, पढ़ कर मजा आ गया

काकेश ने कहा…

आनन्द आया.ऎसी ही कविताऎं पढवाती रहें.

Sanjeet Tripathi ने कहा…

बढ़िया, शुक्रिया!

संजीव कुमार ने कहा…

बढ़िया लिखा है,
धन्यवाद.