शुक्रवार, 17 अगस्त 2007

राखी



भैया की ऑंखों में भरा सनेह हो
धरती पे हरियाली गगन में मेह हो
थाली में दिया सजे राखी हो रौली हो
बहना के हिरदय सा आनंद भरा गेह हो

टीका हो मिठाई हो हंसी की फुहार हो
भाई बहन के सनेह की बयार हो
भाभियों की छेडछाड ननदी का रूठना
ऐसे मने राखी तो बहार ही बहार हो

2 टिप्‍पणियां:

उन्मुक्त ने कहा…

बहने दूर चली गयीं। बस बचपन के राखी दिन की याद रह गयी है।
इस कविता के लिये धन्यवाद, लिखती रहिये।

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

"भावों की पवित्रता हर समय की आवश्यकता" इन संबंधों को फिर जी लेना चाहता हूँ.