सोमवार, 1 अक्तूबर 2007

हक




हमें न आये कभी ख्वाब वाब महलों के
मगर हमें भी तो हक है कि छत तो सर पर हो ।
न हमने चाहा कभी बादलों में जा उडना
मगर अपनें पाँवों के नीचे इक रह-गुजर तो हो ।
तुम्हें मुबारक हो तुम्हारे मखमली बिस्तर
मगर हम थककर जो लौटें कोई दर तो हो ।
न की थी आस कभी भी चमन के फूलों की
मगर बहार का आँखों पे कुछ असर तो हो ।
नसीबों वाले हो खा रहे हो मालपुए
हमको रोटी ही सही मगर पेट-भर तो हो ।
तुम्हींने लूट लिये सारे चैन ओ सुख मेरे
किसी अदालत में अब फरियाद की सहर तो हो ।
कुछ मेरे पास अब तो नही रहा बाकी
ले दे कर इक वोट बचा है, न बे-असर वो हो ।


आज का विचार
सलाह और मदद बिन मांगे न दें ।

स्वास्थ्य सुझाव
जुकाम से बचें, सुबह की चाय अद्रक वाली और शहद डाल कर पीयें ।

1 टिप्पणी:

36solutions ने कहा…

धन्‍यवाद, बहुत अच्‍छी कवितायें हैं एवं सुन्‍दर कलेवर में इन्‍हें आपने प्रस्‍तुत किया है ।
साधुवाद ।

'आरंभ' छत्‍तीसगढ की धडकन