रविवार, 19 नवंबर 2017

चलते हीजानाहै।

कितना तो चल चुकी मैं
कितना अभी चलना है।
थक गये हैं पाँव लेकिन
राह बीच न रुकना है।

कहाँ खत्म रास्ता है
कोन सी मंजिल है मेरी
राह चाहे हो कँटीली
या हो फिर चाहे पथरीली
चलते ही जाना है मुझको
कँही ना ठहरना है

खत्म हो गये वे रस्ते
फूल पत्ती घाँस वाले
अब तो राह मरुथली है
पाँव में पड गये हैं छाले।
चलते ही जाना है लेकिन
राह में ना रुकना है।

ठहराव

भँवर में फँसी थी नाव
नाव में फँसा था पाँव
अनुकूल ना थी हवा
माकूल ना थी दवा
गर्त में था गहरा खिंचाव।

घबराहट चेहरेपर
धडधडाहट थी दिल में
कैसे निकले मुश्किल से
छटपटाहट थी मन में
दूर था किनारे का गाँव।


समय चल रहा था खराब
मुश्किलों का न कोई हिसाब
कोई न तरकीब ऐसी
कूद के पार हों ऐसी
वक्त का हो रहा रिसाव।

मुश्किल से सही
ये भी निकला समय
धीरे धीरे सही कट ही गया
वह समय
चलने लगी आखिर नाँव।

ठंडी हवा कुछ सुकूँ दे गई
साँस संयत हुई
कुछ तो राहत हुई
कुछ तो आया ठहराव।