गुरुवार, 27 सितंबर 2012

बेहतर





वेदना संवेदना है
क्रोध है और कामना है
मोह है और भावना है
मद है कुछ अवमानना है
प्रेम है सद्भावना है
इनके चलते मै सिरफ
इन्सान हूँ यह मानना है ।

हाथ मेरे कर्मरत है
चल रहा जीवन का रथ ये
जो नियत है मेरा पथ है  
है नरम या फिर सखत है
मन कभी रत और विरत है
इनके चलते मै फकत
बस हूँ इक लम्हा ए वकत  ।

खुशियां भी हैं और गम भी
आंख य़े होती है नम भी
ताल, सुर हैं और सम भी
धूप और बारिश की छम भी
कभी ज्यादा कभी कम भी
इनके चलते मैं छहों ऋतुएं हूँ
हूँ ना एक कम भी ।

सब को खुशियां बांट दूं मै
पीर सबकी हर सकूँ मै
हार हूँ या जीत हूँ मै
इस जहां की रीत हूँ मै
मौन हूँ और गीत हूँ मै
हर जनम में हो सकूं मैं
पहले से कुछ अधिक बेहतर ।


चित्र गूगल से साभार


मंगलवार, 18 सितंबर 2012



आईये गणराज, वंदन
शुभ-सुफल हो आगमन ।।

द्वार पर है आम्रतोरण
रंगोली से सजा आंगन
रोली अक्षत औ नीरांजन
आपका करें अभिनन्दन ।। आईये

जगमगाता सारा प्रांगण
मखर अद्भुत सरस अनुपम
वस्त्र नव सब किये धारण
स्वागत में खडे भक्त-जन ।। आईये...

रोली, दुर्वा, फूल चन्दन
मोदक प्रिय मिष्ट-अन्न
हो रहा पूजन औ अर्चन
गा रहे आरती भक्त गण । आईये..

आपदा दूर हो गजानन
कार्य सारे हो बिन-विघन
सुबुद्धि पायें भटके जन
यही मनन है और चिंतन ।। आईये 

मंगलवार, 11 सितंबर 2012

अंतर्विरोध




सन्नाटे की गूंज सुनाई देती है
और गर्जन का मौन दिखाई देता है
अंधकार के बीच उजाले का बिन्दू
अंधकार को चीर दिखाई देता है ।

दोपहरी सी तपती इस रेत पर भी
छाया का आभास हुआ सा लगता है
वर्षा के घनघोर बरसते बादल में
किसी किरण का ठौर दिखाई देता है ।

दुख के इस घने घने अंधियारे में
सुख की बांसुरी सुनाई देती है
और सुखों के बीच न जाने अंदर तक
ये मन क्यूं बेचैन दिखाई देता है ।

प्रेम ताल में डूबते उतराते हुए
बेरुखी का छेद दिखाई देता है ।
और प्रिया की झुकी झुकी सी आँखों में
जाने क्यूं कुछ भेद दिखाई देता है ।

उनकी ना ना करनें की आदत में भी
हाँ हां की आवाज सुनाई देती है
और मेरे लिखने रुकने के झूले में
लिखने का ही विचार दिखाई देता है ।

सोमवार, 3 सितंबर 2012

मै हूँ ना




फैले संध्या रंग क्षितिज पर
सिंदूरी, गुलाबी गहरे
इन रंगों का साथ क्षणों का
छायेंगे धीरे धीरे अंधेरे

ऊदी और सलेटी बादल
परदे से, ढक लेंगे नज़ारे
सांवली रजनी के चुनरी में
टंक जायेंगे झिल मिल तारे

दिन की चहल पहल कोलाहल
शाम की वो रंगीन फिज़ाये
झट से रीत बीत जायेंगी
गहन रात के वारे न्यारे

अजीब सी सिहरन लगती है
देह सिमटने सी लगती है
आशंकाओं की परछाई
दीवारों पर घिर आती हैं

ह्रदय उछल कर मुंह को आता
हाथ पांव नम हो जाते हैं
अज्ञात हवाओं के झोकों से
 बर्फीली ठंडक आती है ।

इन सब में चुपचाप खडी मैं
दीवार से सहारा लेकर
छत गिरने के इंतजार में
निश्चल, विवश और भय कातर ।

इतने में इक किरण कहीं से
पडती है मेरी आँखों पर
कहती है, मै हूँ ना मन में,
फिर तुमको बोलो किसका डर ।

इसी रोशनी को मन में रख
जीवन में आगे जाना है
और अंत में भी हम सब को
इसी उजाले में जाना है ।