आसमान के चांद तारे तोड लाने की बात करते थे तुम
फूल तक तो ला नही पाये कभी आज तक
ऐसा क्यूं होता है कि पत्नि बनते ही
प्रेमिका की अर्थी उठ जाती है
रोमांस और रोमांच खुदकुशी कर लेते हैं
या फिर जर्जर हुए, दम टूटने का इन्तजार
क्यूं मै हमेशा रही हासिल की तरह, तुम्हारे लिये
कभी उत्तर नही बन पाई हमारे गणित का
मेरे साथ चलते हुए भी इधर उधर भटकती तुम्हारी आँखें
फूल फूल पर मंडराने वाले भौरें की ही याद दिलाती रहीं
मै तो नन्दादीप बनी जलती रही तुम्हारे मंदिर में
पर तुमने कब आंख खोली मेरे लिये
छोडो अब, इस बहस की कोई जगह नही
मैनें सीख लिया है अपने लिये जीना ।
26 टिप्पणियां:
सच और बस सच की अभिव्यक्ति है आपकी कविता में !
आभार !
कल्पना और यथार्थ का अन्तर है. खूबसूरत अभिव्यक्ति दी आपने..
हर घर की यही कहानी है।
छोडो अब, इस बहस की कोई जगह नही
मैनें सीख लिया है अपने लिये जीना ।
बहुत सुंदर......प्रभावित करते हैं भाव....
सुंदर भावाभिव्यक्ति।
ye naya andaz bahut achcha laga
@छोडो अब, इस बहस की कोई जगह नही
मैनें सीख लिया है अपने लिये जीना ।
यही अंजाम है।
वाह वाह!....क्या खूब अभिव्यक्ति है आशाजी!...अति सुंदर!
मैनें सीख लिया है अपने लिये जीना -- यही खूबसूरती है ज़िन्दगी की.. बहुत दिनो बाद आना हुआ..आपके छोटे छोटे सुवचनों की कमी खल रही है.
मनुष्य की ये प्रकृति है और इसे बदलना असंभव है...बहुत अच्छे से इस बात को आपने शब्द दिए हैं...बधाई
नीरज
आपके ब्लॉग पर पहली बार रचना पढ़ी. कथा की व्यथा पुरानी है. लेकिन अभिव्यक्ति में नयापन. बधाई
आसमान के चांद तारे तोड लाने की बात करते थे तुम
फूल तक तो ला नही पाये कभी आज तक
ओये होए .....!!
सुरेश जी किधर हैं ....?
बहुत सुंदर.....खूबसूरत अभिव्यक्ति
बहुत ही सुन्दर सशक्त अभिव्यक्ति
कल आपकी यह पोस्ट चर्चामंच पर होगी...
चर्चामंच
मेरे ब्लॉग में भी आपका स्वागत है - अमृतरस ब्लॉग
आप वहाँ आ कर अपने विचारों से अनुग्रहित करियेगा ... सादर
क्यूं मै हमेशा रही हासिल की तरह, तुम्हारे लिये
कभी उत्तर नही बन पाई हमारे गणित का
बहुत अर्थपूर्ण पंक्तियाँ ! ना जाने कितनी नारियों के मन की पीड़ा को आपने शब्द दे दिए ! इतनी संवेदना से परिपूर्ण रचना के लिये बधाई !
जो मजा इंतजार में है वो वस्लेयारमें कहाँ ?
ऐसे ही तो होता है प्रेमिका का पत्नी बन जाने का
मैंने जीना सीख लिया है जीवन को न्य अर्थ दे दिया है
बहुत सुन्दर |
ज़िंदगी के गणित को कहती अच्छी रचना
वाह ताई,
बहुत खुबसूरत लिखी है रचना
मै तो नंदादीप बनी जलती रही तुम्हारे मंदिर में
पर तुमने कब आँख खोली मेरे लिए ....
bahut badhiya .....
पहली बार आपको पढा ,बेहद अच्छा लगा ।संभवत:अधिकतर नारियों के मन में यही बात है ।
मै तो नन्दादीप बनी जलती रही तुम्हारे मंदिर में
पर तुमने कब आंख खोली मेरे लिये.....
बहुत सुन्दर और भावपूर्ण कविता के लिए हार्दिक बधाई।
आसमान के चांद तारे तोड लाने की
बात करते थे तुम
फूल तक तो ला नही पाये
कभी आज तक.......
आपने अपनी कविता के कैनवास पर सच का रंग बिखेर दिया है....
समाज की सच्चाई बयान करती रचना, आशा जी बहुत बहुत बधाई.
वैसे जो सवाल आपने उठाया है, उसका जवाब एक शायर ने कुछ यूं दिया है-
उन्हें ये ज़िद कि मुझे देखकर किसी को न देख
मेरा ये शौक कि सबको सलाम करता चलूं.
कुछ हद तक सचाई ... पर सभी तो ऐसे नही होते ...
भावनाओं को बड़ी प्यारी अभिव्यक्ति दी आपने ! हार्दिक शुभकामनायें !!
छोडो अब, इस बहस की कोई जगह नही
मैनें सीख लिया है अपने लिये जीना
atal aur antim nirnaya bas yahi hai ,pyaar jimmedariyon me dab kar gum ho jaata hai .bahut sundar rahi rachna .
क्यूं मै हमेशा रही हासिल की तरह, तुम्हारे लिये
कभी उत्तर नही बन पाई हमारे गणित का
बस यही तो जीवन का अन्तर्विरोध है ...सच्चाई को बखूबी अभिव्यक्त किया है ....आपका शुक्रिया
एक टिप्पणी भेजें