वापसी हर बार दे जाती है एक नया सुकून
हर बार क्यूं लगता नया, मेरा पुराना सा
शहर।
इसके रस्ते, पेड पौधे, बगीचे और
बस्तियाँ,
दुनिया के रंगी नजारे नही देते वह खुशी
सांसें ज्यूँ इसके हवा की देती अहसासे
इतर।
जो भी मिलता रास्ते पर बूढा बच्चा और
जवान।
अपना दोस्त, अपना ही बेटा और पोता आता
नजर।
अपने देश का खाना पीना अपने शहर की ये
धूल
इसके आगे फीका अमृत, फिर क्या अमरीकी
डिनर।
सोचना चाहती नही कि जब न लौट पाउंगी,
खुदा उतना ऊँचा उठाना, कि देख पाऊँ ये
शहर।
कुछ कर पाते इसके लिये यह तो न हो सका
हमसे
गान इसका कम से कम मेरे होठों पर रहे
अगर।
चित्र गूगल से साभार।
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