जिसके खयाल ही से रूह काँपती है मेरी,
वही दे रहा है है दस्तक मेरे किवाड पे ।
दीवारों के कान होते हैं कहावत ही है लैकिन
लगता कि उगे कान हैं, आंगन की बाड पे ।
हम नासमझ ही सही, समझदार भी देखें
जिनकी समझ के चर्चे हैं दुष्मन के द्वार पे ।
अपना समझ के जिनको गले से लगा लिया
वही ला रहे हैं खटमल पलंग की निवाड पे ।
बेहतर लिखा था जिसने, वो तो इग्नोर हो गया
ईनाम बट रहे हैं उनके कबाड पे ।
कानून व्यवस्था जो सरकार ना चलाय
गुंडा ये राज,
जायें अब किसके द्वार पे ।
अब तो जाओ चेत, न रहो नींद में लोगों
चूके तो भुने जाओगे चनों की भाड पे ।
12 टिप्पणियां:
बहुत ही सुन्दर..
बहुत बेहतरीन सुंदर रचना,,,
RECENT POST : बेटियाँ,
अरे वाह ..
नमस्ते आशा जी, आज कल आप एन्डर्सन मे हैं क्या?
बेहतर लिखा था जिसने, वो तो इग्नोर हो गया
ईनाम बट रहे हैं उनके कबाड पे ।
बहुत सुन्दर..
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन सलाम है ऐसी कर्तव्यनिष्ठा की मिसाल को - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
Har ek sher shandar.....jai hind
दीवारों के कान होते हैं कहावत ही है लैकिन
लगता कि उगे कान हैं, आंगन की बाड पे ।
YE WALA PYARA SA LAGA :)
खूबसूरत अभिव्यक्ति...
बेहतरीन प्रस्तुति.
वाह...
खट्टी मीठी सी ग़ज़ल.....
सादर
अनु
बेहतर लिखा था जिसने, वो इग्नोर हो गया
ईनाम बट रहे हैं अब उनके कबाड पे ।
हा..हा..हा...हा..
मंगल कामनाएं आपके लिए !
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